क्रांति १८५७
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यह वेबसाईट इस महान राष्ट्र को सादर समर्पित।

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झांसी की रानी का ध्वज

स्वाधीन भारत की प्रथम क्रांति की 150वीं वर्षगांठ पर शहीदों को नमन
वर्तमान भारत का ध्वज
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क्रांति १८५७
 

प्रस्तावना

  रुपरेखा
  1857 से पहले का इतिहास
  मुख्य कारण
  शुरुआत
  क्रान्ति का फैलाव
  कुछ महत्तवपूर्ण तथ्य
  ब्रिटिश आफ़िसर्स
  अंग्रेजो के अत्याचार
  प्रमुख तारीखें
  असफलता के कारण
  परिणाम
  कविता, नारे, दोहे
  संदर्भ

विश्लेषण व अनुसंधान

  फ़ूट डालों और राज करो
  साम,दाम, दण्ड भेद की नीति
  ब्रिटिश समर्थक भारतीय
  षडयंत्र, रणनीतिया व योजनाए
  इतिहासकारो व विद्वानों की राय में क्रांति 1857
  1857 से संबंधित साहित्य, उपन्यास नाटक इत्यादि
  अंग्रेजों के बनाए गए अनुपयोगी कानून
  अंग्रेजों द्वारा लूट कर ले जायी गयी वस्तुए

1857 के बाद

  1857-1947 के संघर्ष की गाथा
  1857-1947 तक के क्रांतिकारी
  आजादी के दिन समाचार पत्रों में स्वतंत्रता की खबरे
  1947-2007 में ब्रिटेन के साथ संबंध

वर्तमान परिपेक्ष्य

  भारत व ब्रिटेन के संबंध
  वर्तमान में ब्रिटेन के गुलाम देश
  कॉमन वेल्थ का वर्तमान में औचित्य
  2007-2057 की चुनौतियाँ
  क्रान्ति व वर्तमान भारत

वृहत्तर भारत का नक्शा

 
 
चित्र प्रर्दशनी
 
 

क्रांतिकारियों की सूची

  नाना साहब पेशवा
  तात्या टोपे
  बाबु कुंवर सिंह
  बहादुर शाह जफ़र
  मंगल पाण्डेय
  मौंलवी अहमद शाह
  अजीमुल्ला खाँ
  फ़कीरचंद जैन
  लाला हुकुमचंद जैन
  अमरचंद बांठिया
 

झवेर भाई पटेल

 

जोधा माणेक

 

बापू माणेक

 

भोजा माणेक

 

रेवा माणेक

 

रणमल माणेक

 

दीपा माणेक

 

सैयद अली

 

ठाकुर सूरजमल

 

गरबड़दास

 

मगनदास वाणिया

 

जेठा माधव

 

बापू गायकवाड़

 

निहालचंद जवेरी

 

तोरदान खान

 

उदमीराम

 

ठाकुर किशोर सिंह, रघुनाथ राव

 

तिलका माँझी

 

देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह

 

नरपति सिंह

 

वीर नारायण सिंह

 

नाहर सिंह

 

सआदत खाँ

 

सुरेन्द्र साय

 

जगत सेठ राम जी दास गुड वाला

 

ठाकुर रणमतसिंह

 

रंगो बापू जी

 

भास्कर राव बाबा साहब नरगंुदकर

 

वासुदेव बलवंत फड़कें

 

मौलवी अहमदुल्ला

 

लाल जयदयाल

 

ठाकुर कुशाल सिंह

 

लाला मटोलचन्द

 

रिचर्ड विलियम्स

 

पीर अली

 

वलीदाद खाँ

 

वारिस अली

 

अमर सिंह

 

बंसुरिया बाबा

 

गौड़ राजा शंकर शाह

 

जौधारा सिंह

 

राणा बेनी माधोसिंह

 

राजस्थान के क्रांतिकारी

 

वृन्दावन तिवारी

 

महाराणा बख्तावर सिंह

 

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव

क्रांतिकारी महिलाए

  1857 की कुछ भूली बिसरी क्रांतिकारी वीरांगनाएँ
  रानी लक्ष्मी बाई
 

बेगम ह्जरत महल

 

रानी द्रोपदी बाई

 

रानी ईश्‍वरी कुमारी

 

चौहान रानी

 

अवंतिका बाई लोधो

 

महारानी तपस्विनी

 

ऊदा देवी

 

बालिका मैना

 

वीरांगना झलकारी देवी

 

तोपख़ाने की कमांडर जूही

 

पराक्रमी मुन्दर

 

रानी हिंडोरिया

 

रानी तेजबाई

 

जैतपुर की रानी

 

नर्तकी अजीजन

 

ईश्वरी पाण्डेय

 
 

भारत का संवैधानिक विकास (1858 से 1909 ई. तक )

भारत सरकार का अधिनियम, 1858 ई.
अधिनियम के पारित होने के कारण
अधिनियम की प्रमुख धारायें
अधिनियम के दोष
अधिनियम का महत्त्व

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861 ई.
अधिनियम के पारित होने के कारण
अधिनियम की प्रमुख धारायें
अधिनियम के दोष
अधिनियम का महत्त्व

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892 ई.
अधिनियम के पारित होने के कारण
अधिनियम की प्रमुख धारायें
अधिनियम के दोष
अधिनियम का महत्त्व

मार्ले-मिण्टो सुधार (भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 ई.)
अधिनियम के पारित होने के कारण
अधिनियम की प्रमुख धारायें
अधिनियम के दोष
अधिनियम का महत्त्व


भारत सरकार का अधिनियम, 1858 ई.

कम्पनी के भारतीय शासन के विरूद्ध इंग्लैण्ड में असंतोष की भावना विद्यामान थी। वर्षों से उसे समाप्त करने हेतु आन्दोलन चल रहा था। उदारवादी, सुधारवादी और संसदीय शासन के समर्थक यह मांग कर रहे थे कि कम्पनी जैसी व्यापारिक संस्था के हाथों में भारत जैसे विशाल देश का शासन भार नहीं सौंपा जाना चाहिये। संसद ने समय-समय पर विचित्र एक्ट्स पारित किये, जिनके माध्यम से कम्पनी पर संसद का प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास किया गया। 1857 के विद्रोह ने इस विचारधारा को गति प्रदान की।

1857 का महान विद्रोह भारतीय इतिहास की एक असाधरण तथा महत्त्वपूर्ण घटना है। यद्यपि कुछ विदेशी इतिहासकारों ने इस क्रान्ति को सैनिक विद्रोह की संज्ञा दी है, तथापि भारतीयों की दृष्टि से यह प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम था। पाकिस्तानी इतिहासकारों ने भी इसे आजादी की जंग का नाम दिया है। इस क्रान्ति के फलस्वरूप मुगल साम्रज्य की रही-सह सत्ता पूर्णरूप से समाप्त हो गयी, मराठा शक्ति के पुनः स्थापित होने की आशा पर पानी फिर गया और कम्पनी के प्रशासन की त्रुटियों का भांडा फूट गया। अतः ब्रिटिश सरकार ने 1858 ई. में एक अधिनियम पारित किया, जिसे भारतीय प्रशासन सुधार सम्बन्धी अधिनियम कहते हैं। इस अधिनियम के द्वारा भारत में कम्पनी के शासन का आन्त कर दिया गया और इंग्लैम्ड की सरकार ने भारतीय प्रदेशो का प्रबन्ध सीधा अपने हाथों में ले लिया।


अधिनियम के पारित होने के कारण
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की समाप्ति की पृष्ठभूमि पहले ही तैयार हो चुकी थी। इसके भ्रष्ट कुशासन के विरूद्ध इंग्लैण्ड में अंसतोष चरम सीमा पर पहुँच चुका था। कम्पनी से ब्रिटेन की सरकार को आर्थिक लाभ भी नहीं हो रहा था। कम्पनी ने भारत के बुहत बड़े भू-भाग पर अधिकार कर लिया था। अतः वह एक व्यापारिक संस्था के स्थान पर राजनीतिक सत्ता बनी चुकी थी। परिणामस्वरूप ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत एक संवैधानिक विरोधाभास उत्पन्न हो गया था। इंग्लैण्ड के उदारवादी, सुधारवादी और संसदीय शासन के समर्थकों ने कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार के विरूद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया था। ब्रिटेनवासियों के साथ-साथ भारतवासी भी कम्पनी सरकार की समाप्ति के लिए आवाज उठाने लगे थे। इस हेतु उन्होंने ब्रिटिश संसद को एक प्रार्थना-पत्र भी दिया था। इस प्रकार, कम्पनी की समाप्ति की तैयार हो चूकी थी। यही कारण था कि 1853 ई. के अधिनियम के द्वारा कम्पनी के कार्यकाल को अनिश्चित ही रखा गया।

1857 का विद्रोह कम्पनी सरकार की समाप्ति का तात्कालिक कारण था। वस्तुतः यह कम्पनी के शासन के विरूद्ध भारतीयों का प्रथम स्वन्त्रता संग्राम था। यद्यपि क्रान्ति को निर्दयतापूर्वक दबा दिया गया, इसके परिणामों को देखकर ब्रिटिश राष्ट्र का अन्तःकरण जाग उठा और वह इस निष्कर्ष पर पहुंच गया कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अन्त अवश्य ही कर दिया जाये। कीथ के शब्दों में, विद्रोह का सारा उत्तरदायित्व कम्पनी के माथे पर मढा गया और इसके शासन का विनाश अवश्यम्भावी हो गया। ब्राइट ने लिखा कि, इस प्रश्न पर राष्ट्र का सद्वविवेक जाग उठा एवं उसने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को तोड़ देने का निर्णय किया।

1857 ई. में इंग्लैण्ड में आम चुनाव हुए और लार्ड पामर्स्टन वहाँ के प्रधानमंत्री बन गये। 12 फरवरी, 1858 ई. को लार्ड पामर्स्टन ने हाउस ऑफ कॉमन्स में एक विधेयक प्रस्तुत किया। इसमें उसने द्वैध शासन प्रणाली के दोषों पर जोर दिया और कम्पनी का अन्त कर भारतीय प्रदेशों का शासन प्रबन्ध इंग्लैण्ड की सरकार के हाथों में हस्तान्तरित करने का प्रस्ताव लाया। उसने हाउस ऑफ कॉमन्स में अपना एक प्रसिद्ध भाषण देते हुए कहा कि, हमारी राजनीतिक व्यवस्था का सिद्धान्त है कि सभी प्रशासकीय कार्यों को मंत्रीमण्डल उत्तरदायित्त्व से जुड़ा होना चाहिए, जिसका अर्थ है संसद से जनमत तथा क्राउन के प्रति उत्तरदायित्त्व? लेकिन इस मामें (कम्पनी के मामले में) में भारत सरकार के प्रमुख कार्यों का उत्तरदायित्त्व उस संस्था पर है, जो न तो संसद के प्रति उत्तरदायी है और न क्राउन के द्वारा नियुक्त, बल्कि उन लोगों द्वारा निर्वाचित होती है, जिनका भारत से केवल इतना ही सम्बन्ध है कि कुछ पूँजी में उनका साझा है।

पामर्स्टन ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि इतना विशाल और बड़ी जनसंख्या वाला भारत जैसा देश जान-बूझकर एक शासपत्रित कम्पनी के देख-रेख और प्रबन्ध में रखा जाये। इसलिए उसने प्रस्ताव रखा कि संचालक मण्डल और स्वामी मण्डल को समाप्त कर दिया जाये और उसके स्थान पर एक-एक प्रेसीडेंट की नियुक्ति की जाये, जो सरकार का सदस्य और मंत्रिमण्डल का अंग हो। प्रेसीडेंट की सहायता के लिए एक परिषद् की व्यवस्था की जाये। इस परिषद् में 8 सदस्य होंगे, जिनकी नियुक्ति इंग्लैण्ड के सम्राट के द्वारा की जायेगी इनमें से प्रत्येक दो सदस्य दो वर्ष बाद अवकाश ग्रहण करेंगे और उनकी जगह नये सदस्यों का चुनाव किया जायेगा। केवल वही व्यक्ति परिषद् के सदस्य चुने जा सकते थे, जो या तो ईस्ट इण्डि्या कम्पनी के निदेशक रह चुके हों या तो एक निश्चित अवधि तक सैनिक या असैनिक के रूप में भारत में सेवा कर चुके हीं या जो कुछ निश्चति वर्षों तक स्थानीय शासन से सम्बन्धित होकर भारत में रहे हों।

जे.एस. मिल ने कम्पनी के पक्ष में तर्क प्रस्तुत करते हुए कहा कि, पार्लियामेंट का नियंत्रण संचालक मण्डल की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली सिद्ध नहीं हो सकता। उसका कहना था कि संचालक मण्डल के सदस्य अनुभवी राजनीतिज्ञ होत हैं, जो निर्दलीय होने के कारण अपने कर्तव्यों का पालन निष्पक्ष रूप से कहते हैं। इसलिए उसने इस बात की वकालत की कि कम्पनी का प्रशासन सम्राट के किसी मंत्री को हस्तान्तरित न किया जाये

लार्ड पालर्स्टन मिल के तर्कों से सहमत नहीं हुआ। उसने लोकसभा में इन तर्कों का निःसंकोच रूप से उत्तर देते हुए कहा कि संसद एक उत्तरदायी संस्था है और अब यह अतीत की भाँति प्रभाव शून्य भी नहीं है। प्रशासन के वे सारे सुधार जिन पर कम्पनी गर्व करती है, सब पार्लियामेंट के सदस्यों द्वारा किये गये हैं। उसका कहना था कि भारतीय शासन की वर्तमान व्यवस्था में एकता, कुशलता और उत्तरदायित्त्व की भावना का अभाव है, जिन्हें संसदीय नियंत्रण के द्वारा ही लाया जा सकता है। मंत्रिमण्डल का शीघ्र ही पतन होने से पामर्स्टन द्वारा प्रस्तुत विधेयक उसके कार्यकाल में पारित नहीं हो सका।

26 मार्च, 1858 को हाउस ऑफ कॉमन्स के नेता डिजरैली ने भारत का शासन सम्राट को हस्तान्तरित करने के लिए लोकसभा में एक विधेयक प्रस्तुत किया। उसने प्रस्तावित किया कि भारत के शासन की जिम्मेदारी सम्राट के एक मंत्री के हाथों में सौप दी जाये, जो 18 सदस्यों की एक कौंसिल की सहायता से शासन का संचाल करें। आधे सदस्य सम्राट द्वारा मनोनीत हो और आधे सदस्य इंग्लैण्ड की विभिन्न व्यापारिक संस्थाओं द्वारा चुने जायें। डिजरैली का यह बिल उपहास का विषय बन गया और स्वतः ही समाप्त हो गया। अन्त में, 30 अप्रैल, 1858 को कॉमन्स सबा में स्टैनले द्वारा प्रस्तुत 14 प्रस्तावों को पास किया। इस प्रस्तावों के आधार पर 1858 ई. का विधेयक तैयार किया गया, जिसे अन्त में संसद के विधेयक के रूप में पास कर दिया। 2 अगस्त, 1858 ई. को एक अधिनियम को सम्राज्ञी की अनुमति प्राप्त हो गई। इस प्रकार, 1858 ई. के अधिनियम के फलस्वरूप महान ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का अन्त हुआ और साथ ही शासन के उन दोषों का भी, जिसके लिए कम्पनी बुरी तरह बदनाम थी।1 दिसम्बर, 1858 को संचालक मण्डल की अन्तिम सभा हुई और बड़े ही हृदयस्पर्शी शब्दों में अपना बहुमूल्य तथा विशाल भारतीय साम्राज्य उपहार के रूप में ब्रिटिश साम्राज्ञी को अर्पित कर दिया।

अधिनियम की प्रमुख धारायें
1858 का अधिनियम अधिनियम फॉर बैटर गवर्नमैंट ऑफ इण्डिया (भारत के उत्कृष्टतर शासन के लिए अधिनियम) के नाम से प्रसिद्ध है। इस अधिनियम द्वारा भारतीय प्रदेशों पर से कम्पनी का राज्य समाप्त कर दिया गया और उसे इंग्लैण्ड की सरकार के हाथों में सौंप दिया गया। इस अधिनियम की प्रमुख धारायें निम्नलिखित थीं ः (क) कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था में परिवर्तन
(1)       इस अधिनियम का संवैधानिक महत्त्व एकमात्र इस तथ्य के कारण है कि इसके द्वारा भारतीय प्रदेशों का शासन कम्पनी से छीनकर सम्राट को सौंप दिया गया। अब भारत का प्रशासन साम्राज्ञी और उसके नाम से होने लगा। ईस्ट इण्डिया कम्पनी समाप्त हो गयी।
(2)       भारत की या भारत से प्राप्त होने वाली सब प्रादेशिक तथा अन्य आयें और देशी राज्यों पर प्रभुसत्ता का अधिकार तथा उनसे कर वसूलने का अधिकार सम्राट में निहित कर दिया गया।
(3)       इस अधियनिम ने संचालक मण्डल, नियंत्रण मण्डल तथा गुप्त समिति का अन्त कर दिया और उनके सारे कार्य तथा अधिकार ब्रिटिश सम्राट के एक प्रमुख मंत्री को सौंप दिये गये, जो ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का प्रमुख सदस्य होता था। उसे भारत सचिव की संज्ञा दे दी गई।
(4)       भारत सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक परिषदन् बनाई गयी, जिसका नाम इण्डिया कौंसिल रखा गया। इस परिषद् के 15 सदस्यों में से 8 सदस्य इंग्लैण्ड के सम्राट के द्वारा नियुक्त किये जाने थे और शेष 7 सदस्य उस समय विद्यमान संचालकों में से चुने जाने थे। इसके अतिरिक्त इण्डिया कौंसिल के कम से कम 9 ऐसे सदस्य होने जरूरी थे, जो भारत में कम से कम 10 वर्षों तक किसी पद रहे हों और अपनी नियुक्ति के समय, जिन्हें भारत छोड़े हुए 10 वर्ष से अधिक समय न हुआ हो।
(5)       संचालकों को केवल एक ही बार 7 सदस्यों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया।
(6)       यह स्पष्ट कर दिया गया कि भविष्य में रिक्त होने वाले स्थानों की पूर्ति सम्राट द्वारा की जायेगी।
(7)       भारत सचिव उसकी परिषद के सदस्यों के वेतन, इण्डिया ऑफिस के समस्त व्यय, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ऋण आदि भारतीय राजस्व से देने की व्यवस्था की गई।
(8)       इण्डिया कौंसिल के सदस्य पद अपने पर तब तक बने रह सकते थे, जब तक कि उनका आचरण अच्छा रहे, किन्तु पार्लियामेन्ट के दोनों सदस्यों के कहने पर सम्राट उन्हें पदच्युत कर सकता था। इस व्यवस्था मसे सदस्यों की कार्यकाल की स्थिरता एवं कार्य करनें में स्वतन्त्रता प्राप्तु हई।
(9)       इण्डिया कौंसिल की बैठक सप्ताह में कम से कम एक बार होनी जरूरी थी। इसकी गणपूर्ति का कोमर के लिए 5 सदस्यों की उपस्थिति आवश्यक मानी गयी।
(10)      इण्डिया कौंसिल के सदस्यों को इंग्लैण्ड की राजनीति से अलग रखने के लिए संसद की बैठकों में भाग लेने तथा मत देने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। प्रत्येक सदस्य का वार्षिक वेतन 1,200 पौण्ड निश्चित किया गया था।
(11)      यह भी व्यवस्था की गई कि भारत सचिव प्रतिवर्ष भारतीय प्रदेशों की आमदनी और खर्च का हिसाब ब्रिटिश पार्लियामेंट के सामने पेश करे और भारतीय जनता की नैतिक तथा भौतिक उन्नति के सम्बन्ध में भी नियमानुसार प्रतिवर्ष संसद के समक्ष रिपोर्ट प्रस्तुत करे।
(12)      भारत सचिव को एक निगम निकाय घोषित किया गया, जो भारत और इंग्लैण्ड में मुकदमा चलाने का अधिकार रखता था और जिसके विरूद्ध भी मुकदमा चलाया जा सकता था।
(13)      इंग्लैण्ड में भारत सम्बन्धी मामलों का निर्देशन भारत सचिल करेगा और हर आदेश-पत्र पर उसके हस्ताक्षर अनिवार्य होंगे। भारत सरकार की ओर से ब्रिटिश सरकार को भेजे जाने वाली सभी प्रलेख उसके नाम से सम्बोधित किये जायेंगे।

(14)      परिषद के निर्णय साधारण तौर पर बहुतम से लिये जाये थे। यदि भारत सचिव उचित समझता, तो वह परिषद के निर्णयों की अवहेलना कर अपनी इच्छानुसार काम भी कर सकता था। परन्तु ऐसा करते समय उसे लिखित में उन कारणों को बताना पड़ता था, जिनसे विवश होकर उसे परिषद् के बहुमत के निर्णय के विरूद्ध कार्य करना पड़ता था। कोई आदेश या पत्र जो भारत भेजा जाता था, वह परिषद् के कमरे में (यदि पहले परिषद के समक्ष प्रस्तुत न किया गया हो) रख दिया जाता था और सदस्यों को इस पत्र या आदेश को देखकर अपनी सम्मति लिखनी पड़ती थी। भारत सचिव ऐसे पत्र या आदेश को बहुमत की राय के विरूद्ध भी भेजा सकता था। तात्कालिक आवश्यकता के मामलों में उसे परिषद से परामर्श किये बिना आदेश जारी करे का अधिकार था, परन्तु उसे ऐसे प्रत्येक मामलें के कारण लिखित रूप में देने पड़ते थे और उसकी सूचना अपनी परिषद् हो देनी पड़ती थी। युद्ध, शान्ति का रियासतों से समझौता के बार में भारत सचिव बिना परिषद से पूछे आदेश जार कर सकता था। पुन्निया के शब्दो में, इस परिषद् को संदेश इत्यादि तैयार करने के सम्बन्ध में उसे पहल करने का अधिकार प्राप्त नहीं था, जो इसके पूर्ववर्ती अधिकारी अर्थात् निदेशक समिति को सदा ही प्राप्त रहा था।
(15)      भारत सचिव परिषद् की बैठकों की अध्यक्षता करता था। उसे मतों के बराबर होने पर निर्णायक वोट देने का भी अधिकार था। वह कुछ विशेष मामलों में अपनी परिषद् के निर्णय के विरूद्ध भी इच्छानुसार काम कर सकता था, परन्तु भारतीय राजस्व, नियुक्तियों, भारत सरकार की तरफ से ऋण लेने और भारतीय सम्पत्ति को खरीदने, बेचने तथा गिरवी रखने के लिए उसे अपनी परिषद के निर्णय को मानना पड़ता था।
(16)      परिषद का कार्य सुचारू रूप से चलाने के लिए भारत सचिव उसे कई समितियों में विभाजित कर सकता था तथा कार्य संचाल के लिए उन्हें आवश्यक निर्देश भी दे सकता था।

भारत सरकार के सम्बन्धित उपबन्ध
(1)       इस एक्ट द्वारा गवर्नर जनरल को वायसराय की संज्ञा दी गई।
(2)       भारत के गर्वनर जनरल और प्रेसीडेंसियों के गवर्नरों की नियुक्ति भारत सचिव और उसकी कौंसिल के परामर्श से सम्राट करता था। लेफ्टिनेंट गवर्नरों की नियुक्ति का अधिकार गवर्नरो जनरल को दिया गया, परन्तु इस विषय में उसे ब्रिटिश सरकार की अन्तिम स्वीकृति प्राप्त करनी पड़ती थी। बारत सचिव तथा उसकी परिषद को भारत की अनेक परिषदों के सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार दिया गया। अनुबन्धित लोक सेवकों की नियुक्ति भारत सचिव द्वारा निर्मित नियमों के अन्तर्गत खुली प्रतियोगिता के द्वारा की जायेगी।
(3)       इस अधिनियम द्वारा कम्पनी की सब सेनाएँ तथा उसका प्रबन्ध ब्रिटिश ताज के अधीन कर दिया गया और सेवा की शर्तें वही रहीं, जिन पर उनकी भरर्ती हुई थी। जो व्यक्ति इसके बाद साम्राज्ञी की भारतीय सेनाओं में भर्ती होंगे, उनकी सेवा शर्तों में परिवर्तन करने का अधिकार ताज को दिया गया।
(4)       इस अधिनियम में यह बात निर्धारित कर दी गई की भारतीय राजस्व से भारत की सीमा के बाहर संसद के दोनों सदनों की सहमति के बिना सैनिक कार्यवाहियों पर खर्च नहीं किया जायेगा। केवल बाहरी आक्रमण को रोकने या अन्य किसी आकस्मिक घटना का सामना करने के लिए ही राजस्व का उपोयग किया जायेगा।
(5)       इस अधिनियम में यह स्पष्ट कर दिया गया कि जब कभी किसी झगड़े या युद्ध के सम्बन्ध में भारत सरकार को आदेश दिया जाए, तो उसके जारी होने के तीन महीने के अन्दर या संसद की बैठक शुरू होने के एक महीने के अन्दर पार्लियामेन्ट के दोनों सदनों के सम्मुख अवश्य प्रस्तुत कर दिया जाना चाहिए।
(6)       कम्पनी के द्वारा की गई सन्धियों का सम्राट आदर करेगा। कम्पनी के सभी अनुबन्धों, सम्झौतों और उत्तरदायितत्त्वों को सपरिषद् भारत सचिव द्वारा लागू किया जायेगा।
(7)       महारानी सरकार परिवर्तन के सम्बन्ध में देशी नरेशो और भारतीय जनता के नाम शीघ्र ही एक घोषणा करेगी।

महारानी विक्टोरिया की घोषणा (1 नवम्बर, 1858 ई.)
कम्पनी के क्राउन के हाथों में सत्ता के हस्तान्तरण के सम्बन्ध में महारानी विक्टोरिया ने 1 नवम्बर, 1858 ई. को शाही घोषणा की। इस घोषणा की शब्द रचना बहुत सावधानी के साथ विचार करने के बाद की गई थी। इसकी भाषा बड़ी सुन्दर तता प्रतिष्ठापूर्ण थी और उससे मित्रता, उदारता, दयालुता, सहृदयता, क्षमा और न्याय की भावना आभास होता था। इसमें अनेक प्रतिज्ञाओं और आश्वासनों का समावेश किया गया था। महारानी विक्टोरिया की इस घोषणआ को लार्ड केनिंग ने 1 नवम्बर, 1858 को इलाबाद के स्थान पर एकत्रित हुए राजाओं और जनता को पढ़कर सुनाया। इस घोषणा में महारानी ने कहा था कि-
हमने उस समस्त भारतीय प्रदेशों को अपने अधिकार में ले लेना का निर्णय कर लिया है, जो इससे पूर्व कम्पनी के पास थे और जिन पर वह हमारी ओर से राज्य कर रही थी।
(1)       हम इन प्रदेशों में रहने वाली प्रजा से अपने, अपने वारिसों तथा उत्तराधिकारियों के प्रति राजभक्ति की आशा सरते हैं।
(2)       हम लार्ड केनिंग को अपने भारतीय प्रदेशों का प्रथम वायसराय तथा गवर्नर जनरल नियुक्त करते हैं।
(3)       हम उन समस्त सन्धियों को जो कम्पनी ने भारतीय राजाओं के साथ की है, प्रसन्नता से स्वीकारते हैं और उन्हें पूरा करने का विश्वास दिलाते हैं।
(4)       हम कम्पनी द्वारा नियुक्त किये गये समस्त सैनिक तथा असैनिक पदाधिकारियों को उनके पदों पर पक्का करते हैं।
(5)       हमें अपने भारतीय प्रदेशों को विस्तुत करने की इच्छा नहीं है। हम दूसरों के प्रदेशों या अधिकारों पर न तो स्वयं छापा मारेंगे और न ही किसी शक्ति को अपने प्रदेशों तथा अधिकारों पर छापा मारने की आज्ञा देंगे।
(6)       हम अपने अधिकारों, प्रतिष्ठा तथा सम्मान के तुल्य भारतीय नरेशों के अधिकारों, प्रतिष्ठा तथा सम्मान का आदर करेंगे।
(7)       हम अपनी प्रजा के किसी भी सदस्य पर अपने धार्मिक विचारों को नहीं थोपेंगे और न ही प्रजा के धार्मिक जीवन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करेंगे।
(8)       सब के साथ समान और निष्पक्ष न्याय किया जायेगा।
(9)       नौकरियों के सम्बन्ध में भरती का आधार एकमात्र योग्यता होती, जाति और मत को किसी प्रकार का महत्त्व नहीं दिया जायेगा।
(10)      कानून बनाने तथा उसको लागू करनें में भारतीयों के प्राचीन, अधिकारो, प्रथाओं तथा रीति-रिवाजो का महत्त्व नहीं दिया जायेगा।
(11)      महारानी ने इस घोषणा में विद्रोह की दुःखांत घटनाओं के प्रति खेद व्यक्त किया और अंग्रेजों के वध में भाग नही लेने वाले सब विद्रोहियों को बिना शर्त क्षमा कर दिया गया। बन्दियों की रिहाई के सम्बन्ध में भी आदेश दिया गया।
(12)      अन्त में, महारानी ने अपनी घोषणा में कहा कि, जब भगवान् की कृपा के आन्तरिक शान्ति स्थापित हो जायेगी, तब हमारी हार्दिक अभिलाषा है कि भारत के शान्तिपूर्ण व्यवसायों को प्रोत्साहन दिया जाये, सार्वजनिक उपयोगित के कार्यों में वृद्धि की जाये और अंग्रेजी प्रदेशों में रहने वाली प्रजा के हितों को दृष्टि में रखकर शासन किया जाये। उनकी (भारतीय जनता) समृद्धि में हमारी शक्ति है, उनके संतोष में हमारी सुरक्षा और उनकी कृतभता में हमारा पुरस्कार। ईश्वर हमें और हमारे अधीन काम करने वाले अधिकारियों को शक्ति दे कि हम अपने प्रजानों की भलाई के लिये अपनी इच्छाओं को कार्यन्वित कर सकें।

घोषणा का महत्त्व
महारानी विक्टोरिया की घोषणा भारतीय इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। यद्यपि इसे क्रियान्वित नहीं किया गया, तथापि इसकी सुन्दर भाषा एवं उच्च आवश्वसनों के कारण भारतीयों ने इस घोषणा का स्वागत किया। इसके अतिरिक्त घोषणा द्वारा एक ऐसी शासकीय नीति का सूत्रपात किया गया, जो आगामी 60 वर्ष तक भातीय ब्रिटिश शासन का आधार बनी रही। कृपाराम बम्बलाल के शब्दों में, यह घोषणा-पत्र प्राय 60 वर्षों, सन् 1917 ई. तक ब्रिटिश सरकार की भारत सम्बन्धी नीति का मूल आधार बन रहा। उसने उस समस्त सिद्धान्तों को निश्चित किया, जिनके अनुसार भारत का शासन प्रबन्ध भविष्य में होने को था। यद्यपि उनके कतिपय महत्त्वपूर्ण उपबन्धों पर आचरण नहीं हुआ, फिर भी यह पर्याप्त दीर्घकाल तक भारत में ब्रिटिश नीति का आदर्श माना जाता रहा। डॉ. ईश्वरी प्रसाद लिखते हैं कि, यह घोषणा भारतीय जनता के लिए वरदान सिद्ध हुई। इसने भारतीयों को शान्ति, समृद्धि, स्वतन्त्रता, समान व्यवहार तथा योग्यता के बल पर पद प्रदतान करने का वचन दिया।

इस घोषणा में भारतीय लोगों के विक्षुब्ध चित्त काफी हद तक शान्त हो गये और उनमें सुख प्राप्त करने की नवीन आशा उत्पन्न हुई। लार्ड कैनिंग ने इस घोषणा के सम्बन्ध में कहा कि इसके द्वारा भारत में एक नये युग का आरम्भ हुआ है। कुछ लेखक इष घोषणा को भारतीय स्वतन्त्रता का सबसे बड़ा चार्टर (Magna Carta of Indian Liberties) मानते हैं।

की।

अधिनियम के दोष

यद्यपि इस अधिनियम से भारत की शासन सत्ता कम्पनी से छीनबीनकर ब्रिटिश ताज को दे दी गयी थी, तथापि भारतीयों के लिए उसका राजनीतिक महत्त्व नहीं के बराबर रहा। इससे भारतीयों को कोई राजनीतिक अधिकार नहीं दिये और न ही भारत के प्रशासन में भाग लेने की छूट दी। इससे उमड़ती राष्ट्रीय चेतना पर कोई ध्यान नहीं दिया। अतः भारतीयों में असंतोष की भावना पूर्ववत् बनी रही। कनिघंम ने लिखा है कि, इस अधिनियम में कोई ठोस परिवर्तन के स्थान पर नाममात्र के परिवर्तन हुई. (It created rather a formar than a substantial change)इस कारण रैम्जे म्योर ने भी लिखा है कि, एक राजनीतिक शक्ति के रूप में 1858 ई. से बहुत पहले ही समाप्त हो चुकी थी। 1858 ते अधिनियम ने कम्पनी के शव को केवल भली-भाँती दफनाने का कार्य किया।

क्या 1858 में भारतीय प्रशासन का परिवर्तन औपचारिक था या ठोस?
1858 ई. के अधिनियम के परिणामस्वरूप कम्पनी के भारतीय प्रदेशो का शासन तथा उनका राजस्व इंग्लैण्ड नरेश के अधिकार में चला गया। द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया और गवर्नर जनरल को वायसराय की संज्ञा दी गई, परन्तु सर एच.सी. कर्निघम के मतानुसार ये सारे प्रशासनिक परिवर्तन औपचारिक मात्र थे, क्योंकि 1784 के पिट्स इण्डिया अधिनियम के द्वारा ब्रिटिश सरकार का भारतीय प्रशासन वास्तविक नियंत्रण स्थापित हो गया था। ब्रिटिश सरकार नियंत्रण मण्डल के अध्यक्ष के माध्यम से भारतीय प्रशासन की देखरेख करती थी और उसके सम्बन्ध में समय-समय पर आवश्यक निर्देशन भी देती थी। ब्रिटिश सरकार ने नियंत्रण मण्डल की शक्तियों में इतनी वृद्धि कर दी कि कम्पनी ब्रिटिश सरकार का एक विभाग बन गयी थी और संचालक मण्डल की स्थिति एक सलाहकार समिति जैसी हो हो गयी थी। लार्ड डर्बी ने इस सम्बन्ध में कहा था कि, संचालक मण्डल की शक्तियाँ व्यावहारिक रूप से इतनी निःसार हो चुकी है कि वह नियंत्रण मण्डल की सहमति के बिना कोई काम नहीं कर सकता। सारांश यह कि 1784 के बाद शासन की वास्तविक शक्ति नियंत्रण मण्डल के हाथों में केन्द्रीय हो गयी थी और संचालक मण्डल केवल विचार-विमर्श करने वाला मण्डल बनकर रह गया था।

1784 के पिट्स इण्डिया एक्ट के पास होने ने बाद नियंत्रण मण्डल की तुलना में संचालक मण्डल का प्रभाव दिन-प्रतिदिन कम होता गया और 1874 तथा 1858 के बीच पास होने वाले प्रत्येक अधिनियम ने उसके अधिकारों पर चोट की। सन् 1853 ई. के चार्टर अधिनियम ने तो उसकी रही-सही शक्तियों को भी नष्ट कर दिया। इस अधिनियम के द्वारा कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार संचालक मण्डल से छीनकर नियंत्रमण मण्डल के अध्यक्ष को दे दिया। संचालक मण्डल के सदस्यों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई। इनमें से भी 6 सदस्य सम्राट द्वारा मनोनीत किये जाते थे। इस प्रकार सरकार द्वारा मनोनीत सदस्यों का प्रभाव अधिक बढ़ गया।

सारांश यह कि 1853 के एक्ट ने संचालक मण्डल की पूर्ण समाप्ति का मार्ग बना दिया। महान विद्रोह के समय अनुकूल परिस्थितियाँ होने के कारण 1858 में यह कार्य सम्पन्न हुआ। कर्निघम का यह कथन कुछ सीमा तक सह प्रतीत होता है कि भारतीय प्रदेशों में शासकीय परिवर्तन अचानक नही, अपितु शनैः-शनैः हुआ। यह कार्य 1784 के पिट्स इण्डिया अधिनियम से आरम्भ हुआ और 1858 के अधिनियम में जाकर सम्पन्न हुआ। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है कि, इस अधिनियम ने तो इंग्लैण्ड की सरकार को, जो क्रियात्मक रूप से पहले से ही भारत की वास्तविक सरकार थी, खुल्लम-खुल्ला भारत की सरकार बना देने का कार्य किया।


अधिनियम का महत्त्व
1858 ई. के अधिनियम का महत्त्व
1858 अधिनियम को सामान्यतया भारत के अधिक अच्चे शासक के लिए बनाया गया अधिनियम भी कहा जाता है। इस एक्ट का भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे कम्पनी के शासन का अन्त हो गया और एक ऐसी शासन व्यवस्था का सूत्रपात हुआ, जो आगामी 60 वर्ष तक भारतीय प्रशासन का निर्देशन करती रही। इसके अतिरिक्त इस एक्ट के परिणामस्वरूप भारतीयों में सुख प्राप्त करने की नवीन आशा उत्नप्न हुई और भारत में एक स्वस्थ वातावरम की सृष्टि हुई। इस प्रकार, इस एक्ट का संवैधानिक तथा क्रान्तिकारी महत्त्व है।
(1)       जी.एन. सिंह ने लिखा है कि, 1858 रे अधिनियम का बड़ा भारी महत्त्व है, क्योंकि इसके द्वारा भारतीय इतिहास में एक महान युग का अन्त हुआ और एक नये युग का आरम्भ हुआ। ईस्ट इण्डिया कम्पनी, जिसे पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने के लिए 250 वर्ष पूर्व स्थापित किया गया था, समाप्त हो गयी। परन्तु उसने अपनी समाप्ति के समय ब्रिटिश ताज को भारत का एक विशाल साम्राज्य सौंप दिया। इससे भारतीय प्रदेशों का प्रशासन सीधा ब्रिटिश सरकार के हाथों में चला गया। मार्शमैंन के शब्दों में, अपने शासन का परित्याग करते समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने महारानी विक्टोरिया को एक ऐसे साम्राज्य की भेंट दी, जो रोम के साम्राज्य से भी अधिक शानदार था। इस प्रकार इस अधिनियम के द्वारा भारत के संवैधानिक इतिहास में एक नया युग आरम्भ हुआ।
(2)       इस अधिनियम का महत्त्व इस बात में भी निहित है कि इसने स्वदेश में द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर दिया, जो पिछले 74 वर्षों से कम्पनी के प्रशासन का आधर बनी हुई थी। द्वैध शासन व्यवस्था में उत्तरदायित्व का विभाजन सरकार और कम्पनी के संचालन मण्डल तथा नियंत्रण मण्डल के बीच था। यह शासन पद्धति विध्नकारिणी तथा विलम्बकारिणी थी। इंग्लैण्ड की जनता भी काफी समय से इस शासन व्यवस्था का विरोध कर रही थी, परन्तु 1857 ई. की क्रान्ति के पश्चात् उसका विरोध अधिक व्यापक तथा प्रबल हो गया। जनता की इस माँग को पूरा करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने इस अधिनियम द्वारा द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर एक नयी व्यवस्था स्थापित की। इससे भारतीय प्रशासन के सुदृढ़ तथा स्वच्छ बनने की आशा उत्पन्न हुई।
(3)       अधिनियम का महत्त्व इस बात में भी निहित है कि इसने भारतीय परिषद् (इण्डिया कौंसिल) की स्थापना की। भारतीय परिषद् एक स्वतन्त्र संस्था थी, जिसके सदस्यों को भारतीय समस्याओं का पूरा ज्ञान होता था, क् ोयंकि उनके लिए यह शर्त थी कि वे नियुक्ति से पहले 10 वर्ष तक भारत में या तो रह चुके हों या नौकरी कर चुके हों। इसके विपरीत संचालक मण्डल के सदस्यो में इन गुणों का सर्वथा अभाव था। उन्हें भारत में आने का अवसर ही नहीं मिलता था। अतः परिषद् के सदस्यों की भारत के मामले में संचलाक मण्डल अपेक्षा अधिक रूचि होती थी। स्पष्टतया यह नयी व्यवस्था भारतीय प्रशासन के लिए बुह उपयोगी थी।
इस एक्ट के रचियता चाहते थे कि, भारत के स्वदेश (इंग्लैण्ड) से होने वाले शासन में वह तत्परता, निश्चय और ऊर्जा बनी रहे, जो उस ज्ञान, अनुभव और व्यवहार से सम्पन्न व्यक्तिगत (गैर सरकारी) प्रधिकार का परिणाम है-यह ज्ञान, अनुभव और व्यवहार असाधारण रूप से मेघावी ऐसे लोगों के निकाय से प्राप्त हो सकता है, जिनका भारतीय जीवन के विस्तुत और विविध रूपों में काफी परिचय रहा हो।
इस अधिनियम द्वारा भारतीय परिषद् की स्थापना की गई, जिसके कारण अधिनियम के रचियताओं की इच्छा पूरी हो गयी। इस परिषद् का उद्देश्य भारत सचिव की असीमित शक्तियों पर रोक लगाना था, परंतु वास्तविक व्यवहार में यह केवल एक परामर्श देने वाली संस्था ही रह गई। इस परिषद् के सदस्य इण्डिय सिविल सर्विस के रिटायर्ड व्यक्ति होते थे, जिन्हें अपने वेतन और पद की चिन्ता अधिक रहती थी। वे सामान्यतया हर बात में परिषद् की हाँ में हाँ मिलात थे। सर एल्फेर्ड लायल लिखते हैं कि, इण्डिया कौंसिल की स्थापना का कोई विशेष लाभ नहीं हुआ।

(4)       इस अधिनियम के द्वारा भारत सचिव के पद की व्यवस्था की गई, जो संवैधानिक दृष्टिकोण से बहुत महत्त्वपूर्ण थी। भारत सचिव ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का महत्त्वपूर्ण सदस्य होता था। उसके पास बहुत अधिकार तथा शक्तियाँ होती थी। नियंत्रण मण्डल के अध्यक्ष की अपेक्षा भारत सचिव का पद बहुत गौरवपूर्ण तथा प्रभावशाली था। इस पद पर लार्ड सेलिसबरी, सर चार्ल्स वुड, लार्ड चर्चिल तथा जॉन मार्लें जैसे प्रमुख विद्वानों और कुशाग्र बुद्धि तथा प्रतिभा सम्पन्न राजमर्मज्ञों ने काम किया। इस पद पर आसीन व्यक्ति का इंग्लैण्ड की सरकार पर प्रभाव होता था। भारत सचिव का पद ब्रिटिश शासन काल के अन्त तक बना रहा। यह आशा की गयी कि गृह सरकार तत्परता, निर्णय शक्ति के साथ कार्य करेगी, क्योंकि ज्ञान, अनुभव और व्यवहार पर आधारित व्यक्ति के यही परिणाम होते हैं।

(5)       कम्पनी के शासनकाल में ब्रिटिश सरकार भारतीय समस्याओं के प्रति बहुत सजग थी, परन्तु भारतीय शासन को अपने हाथ में लेने के बाद उसने भारतीय माममों में विशेष रूचि नहीं ली और शासन में आवश्यक सुधार भी नहीं किये। रैम्जे मैक्डोनल्ड ने इस सम्बन्ध में लिखा कि, पार्लियामेंट भारतीय शासन के प्रति जागरूक नहीं है। संसद में भारतीय समस्याओं पर वाद-विवाद नहीं होते और भारत सम्बन्धी बडट की छानबीन के समय प्रायः बहुत से सदस्य अनुपस्थित रहते हैं।
(6)       इस अधिनियम द्वारा भारत सचिव तथा उसकी परिषद् के सदस्यों के वेतन तथा इण्डिया ऑफिस का सारा खर्च भारतीय राजस्व से देने की व्यवस्था की गई थी। इससे भारत पर काफी आर्थिक बोझ आ पड़ा, जिसे उसे आगामी 60 वर्षों तक वहन करना पड़ा।
(7)       इस अधिनियम ने देशी शासकों और विदेशी शासकों के बीच एक नया स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित किया। ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि विजय तथा अन्य राज्यों को अपने राज्यों में मिला लेने की नीति को त्याग दिया जायेगा। इससे देशी राजाओं से उसका मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो गया। इस अधिनियम द्वारा भारतीय राजाओं को यह विश्वास दिलाया गया कि, हम देशी राजाओ के अधिकार, गौरव और सम्मान का उसी प्रकार ध्यान रखेंगे, जैसे अपने का रखते हैं। इससे देशी राजाओं के मन में ब्रिटिश सरकार के प्रति घृणा के स्थान पर सद्भावना उत्पन्न हुई। यह भी निःसन्देह इस अधिनियम का महत्त्वपूर्ण परिणाम था।
(8)       इस अधिनियम ने धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और लोक सेवा में भर्ती के लिए जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव समाप्त कर दिया गया। इससे आम जनता को बहुत बड़ी राहत मिली। कूपलैण्ड ने इस अधिनियम के परिणाम का वर्णन करते हुए ठीक ही कहा कि, परिवर्तन से अधिक महत्त्वपूर्ण यह भावना थी कि इसने (एक्ट ने) ऐंगेलो-इण्डियन इतिहास का अध्ययन बहन्द कर दिया और एक नये अध्याय की शुरूआत


भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861 ई.

भारतीय प्रदेशों को सीधा अपने अधिकार में लेने के पश्चात् ब्रिटिश पार्लियामेंट ने उनके शासन के सम्बन्ध में एक अधिनियम पास किया, जिसे 1861 का इण्डिय कौंसिल्ज अधिनियम कहते हैं। यह अधिनियम अंग्रेजो की भारतीयों के साथ सहयोग की नीति का आरम्भ था। इसके द्वारा भारतीयों को प्रशासन में भाग लेने का अवसर दिया गया। आर.एन. अग्रवाल ने इसे शुभचिन्तक स्वेच्छाचारितावाद की संज्ञा दी है। यह स्वेच्छाचारितावाद इस अर्थ में था कि ब्रिटिश सरकार पहले की भाँति अनुत्तरदायी बनी रही, शुभचिन्तक इस अर्थ में कि इस अधिनियम के द्वारा भारतीय शासन में भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न किया गया। इस नीति का पालन 1919 ई. तक किया जाता रहा।


अधिनियम के पारित होने के कारण
1858 ई. में कम्पनी शासन की समाप्ति के बाद भारत के प्रशासनिक ढाँचे में परिवर्तन करना भी आवश्यक हो गया था, क्योंकि 1858 ई. के अधिनियम द्वारा भारतीय प्रशासन में कोई परिवर्तन नहीं किया गया था। 1861 ई. के अधिनियम के पारित होने के अनेक कारण थे। इनमें से प्रमुख निम्नलिखित थे-
(1) भारतीयों को कानून बनाने वाली परिषदों में भाग देने की आवश्यकता-1857 के विद्रोह या आन्दोलन ने यह सिद्द कर दिया था कि भारतीयों के सहयोग के बिना लम्बे अरसे तक उन पर शासन करना सम्भव नहीं है। इंग्लैम्ड में बहुत-से लोगों को यह विश्वास हो गया कि सन् 1857 ई. की क्रान्ति का कारण शासक और शासित के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध का अभाव तथा देश की व्यवस्थापिका सभा में भारतीयों की अनुपस्थिति थी। इसलिए 1857 के विद्रोह की समाप्ति के बाद सर सैयद अहमद खां ने यह विचार प्रकट किया था कि, यदि भारत की कानून-निर्माण कौंसिल में एक भी भारतीय सदस्य होता, तो जनता कभी भी ऐसी भूल नहीं करती।

इस प्रकार, सर सैयद अहमद खां ने भी भारतीय व्यवस्थापिका सभा में भारतीयों को सदस्यता न मिलना विद्रोह का मुख्य कारण बतलाया था। उसने लिखा की भारतीयों को कानून बनाने वाली परिषदों में अलग रखने के कई दुष्परिणाम भी होते हैं-
(i)        सरकार को यह पता नहीं चल पाता कि उसके द्वारा बनाये गये कानून कहाँ तक उचित तथा उपोयगी हैं।
(ii)       उसे इस बात की जानकारी भी नहीं मिल सकती कि इन कानूनों के सम्बन्ध में भारतीय जनता के क्या विचार हैं?
(iii)       सरकार ने किसी भी अनुचित कानून के विरूद्ध आवाज उठाने के लिए भारतीय जनता के पास कोई साधन नहीं है। इन परिस्थितियों में न तो भारतीय जनता को सरकार के दृष्टिकोण को समझने का अवसर मिलता है और न ही सरकार भारतीयों की भावनाओं का उचित सम्मान कर सकती है। अतः भारतीय जनता और सरकार के एक-दूसरे को न समझने के कारण इस महान् विद्रोह का जन्म हुआ है। बम्बई के गवर्नर बार्टल फ्रेरे ने इस विचार को इन शब्दों में व्यक्त किया था, जब तक आपके पाक कोई वायुमापक यंत्र अथवा सुरक्षा कपाट के रूप में एक विचार परिषद् नहीं होगी, मैं विश्वास करता हूँ कि आपको इसी प्रकार से अस्पष्ट तथा भयावह विस्फोटों के साक्षात्कार होना ही पडेगा।
सर सैयद अहमद खाँ के विचार का समर्थन करते हुए गवर्नर जनरल की कौंसिल के एक प्रसिद्ध सदस्य सर बार्टल फ्रेरे ने लिखा था कि, मेरे विचार में भारतीय सदस्यों को लैजिस्लेटिव कौंसिल में स्थान देना अतिआवश्यक है, क्योंकि हमारे पास बिना उनके विद्रोह के कोई और ऐसा साधन नहीं, जिससे हम यह जान सकें कि सरकार द्वारा लाखों व्यक्तियों के लिए बनाया गया कानून उनके अनुकूल है या नहीं। सारांश यह है कि 1857 के महान् विद्रोह ने प्रचलित भारतीय प्रणाली के दोषों को उजागर कर दिया और विधान परिषदों में भारतीयों को सदस्यों के रूप में सम्मिलित करने की आवश्यकता पर बल दिया। इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए 1861 को अधिनियम पास करना आवश्यक हो गया था।

(2) भारतीय जनता की माँग- भारतीय जनता भी शासन व्यवस्था में सुधार लाने की माँग कर रही थी। वह शासन में भाग लेना चाहती थी। अतः इस माँग को पूरा करने के लिए भी ब्रिटिश सरकार को यह अधिनियम पास करना पड़ा।

( (3) परिषद् में दोष- भारत सरकार उस समय विद्यामान परिषद् की रचना और शक्तियों से संतुष्ट नहीं थी। उसकी राय थी कि सम्पूर्ण देश के लिए कानून बनाने हेतु एक ही परिषद् अपर्याप्त थी। देश के विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ थीं, जिनका ज्ञान एक संस्था को होना असम्भव था। अतः परिषद् में सुधार लाना आवश्यक प्रतीत हो रहा था।

(4) प्रांतीय सरकारों को कानून बनाने के सम्बन्ध में अधिकार देने की आवश्यकता-1833 ई. में प्रांतीय सरकारों के कानूना बनाने का अधिकार सपरिषद् गवर्नर जनरल को दे दिया गया था, परन्तु यह नवीन शासन व्यवस्था अनुपयोगी तथा असफल सिद्ध हुई। समयाभाव तथा यातायात के साधनों का विकास नहीं होने के कारण सपरिषद् गवर्नर जनरल के लिए देश के प्रान्तों की स्थिति से भली-भाँति परिचित होना असम्भव था। ऐसी अवस्था में वे इन प्रान्तों के लिए ठीक तरह से कानून नहीं बना पाते थे। दूसरी ओर प्रांतीय सरकारें कानून बनाने का अधिकार छिन जाने से अप्रसन्न थी। 1853 के अधिनियम के द्वारा प्रांतीय सरकारों के प्रतिनिधियों को परिषद् में स्थान दिया गया था, तथापि वह उनसे सन्तुष्ट नहीं थे। इस शासकीय त्रुटि को दूर करने के लिए यह अधिनियम पास करना आवश्यक हो गया था।

(5) गवर्नर जनरल को आवश्यक अधिकार-गवर्नर जनरल को विनियम के अधीन न आने वाले प्रान्तों के लिए आदेश जारी करने का अधिकार था। उन आदेशों का वहीं महत्त्व होता था, जो एक कानून का था। सी.एल. आनन्द ने लिखा है कि, इस बारे में सन्देह प्रकट किया गया था कि अधिनियम के अधीन न आने वाले प्रान्तों के लिए सपरिषद् सम्राट के आदेशों के समान कार्यकारी आदेशों द्वारा विधान बनाने की तथाकथित शक्तियाँ गवर्नर जनरल को प्राप्त हैं भी या नहीं। इस संवैधानिक त्रुटि को दूर करना अनिवार्य हो गया था।

(6) भारतीय लैजिस्लैटिव कौंसिल के प्रति असंतोष- 1853 ई. के अधिनियम द्वारा स्थापित भारतीय विधान परिषद् ने अपनी शक्तियाँ धीरे-धीरे बढ़ा ली थीं, जो उस समय विद्यमान शासन प्रणाली के साथ पूर्णतया असंगत थी। इसने एक वाद-विवाद सभा या छोटी संसद का रूप ले लिया था। उसके काम करने का ढंग संसदीय पद्धति की कार्य विधि के अनरुप था। यह कौंसिल गवर्नर जनरल ने जवाब-तलब करती थी और गोपनीय पत्रों को भी अपने सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए विवश करती थी। इसने भारत सचिव द्वारा चाहे गये किसी भी विधान को पास करने से इन्कार कर दिया था। इस प्रकार, यह बराबर स्वतन्त्र कानून निर्माण का अधिकार हस्तगत करने का प्रयास करती रही। इन सबका परिणाम यह हुआ कि शासन की कार्यकुशलता में बाधा उत्पन्न होने लगी। अतः इसकी शक्ति और अधिकार को नियंत्रित करने के लिय यह अधिनियम करना अनिवार्य हो गया था।

(7) जातीय शत्रुता था परस्पर अविश्वास-यद्यपि लार्ड कैनिंग ने 1857 के विद्रोह द्वारा उत्पन्न जातिगत शत्रुता तथा परस्पर अविश्वास को दूर करने का अथक् प्रयास किया, तथापि उसे अपने उद्देश्य में पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई। अंग्रेज जाति कानपुर, मेरठ और दिल्ली में घटित हुई घटनाओं को कभी नहीं भूल सकी। अतः उसने विद्रोही भारतीयों के प्रति कभी भी आवश्यक उदारता का प्रदर्शन नहीं किया। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध समाचार-पत्र लंदन टाइम्स ने इस सम्बन्ध में लिखा था कि, हमारे देशवासियों की रक्षा इस बात की माँग करती है कि दिल्ली में हुए रक्तपात का बदला बड़ी क्रूरता से चुकाया जाये। विद्रोह करने वाले भारतीय सैनिकों को तो तोपों से उड़ा देना चाहिए था।

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने वाले भारतीयों को अंग्रेज न्यायधीशों ने आवश्यकता से अधिक कठोर दण्ड दिये। परिणामस्वरूप 1857 से पूर्व भारतीय तथा अंग्रेजों के मध्य विद्यमान आपसी सहानुभूति तथा विश्वास पूर्ण रूप से समाप्त हो गया और दोनों एक दूसरे को सन्देह की दृष्टि से देखने लगे। ऐसे वातावरण में सरकार के लिए भारतीय जनता के विचारों को जनना तथा समझना और भी कठिन हो गया। इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए भारत-राज्य सचिव चार्ल्स वुड ने संसद के समक्ष यह शब्द कहे, हमारी स्थिति के सम्बन्ध में जो कठिनाइयाँ उत्पन्न हो रही है, उनकी ओर से आँखें मूंद लेना बुद्धिमान नहीं। अतः इस कारण भी सारी संस्थाओं की शीघ्र-अतिशीघ्र नियमों पर आधारित करने का यत्न करना चाहिए।इसलिए विवेश होकर तत्कालीन भारतीय गवर्नर जनरल कैनिंग ने भारत सचिव को इस परिस्थिति में सुधार करने के लिए कुछ सुझाव भेजे। परिमामस्वरूप सर चार्ल्स वुड ने 6 जून, 1861 को हाउस ऑफ कॉमन्स में इस हेतु एक बिल पेश किया। 1861 में यह पिल होने के बाद अधिनियम बन गया।

अधिनियम की प्रमुख धारायें

अधिनियम की प्रमुख धाराएँ अथवा अधिनियम के उपबन्ध 1861 के अधिनियम ने भूतपूर्व अधिनियमों के एक जगह संचित किया तथा उनमें आवश्यकतानुसार संसोधन भी कर दिया। सी.एल. आनन्द ने लिखा है कि, यह विक्रेन्द्रीकरण की दिशा में पहला महत्त्वपूर्ण कदम था और विधि निर्माण के कारय् में भारतीयों को सम्मिलित करने इसने प्रतिनिधि सस्थाओं का बीज बोया। सारांश यह कि इस अधिनियम द्वारा भारतीय राज्य प्रणाली में बहुत महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस अधिनियम की मुख्य धाराएं निम्नलिखित थीं-
(क) केन्द्रीय कार्यपालिका में परिवर्तन (i)         गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् के साधारण सदस्यों की संख्या 4 से बढ़ाकर 5 कर दी गई। पाँचवां सदस्य या तो बेरिस्टर या स्कॉलैण्ड की फैकल्टी ऑफ एडवोकेट्स का सदस्य हो ता था। उसके लिए यह आवश्यक था कि वह वित्त का बड़ा भारी ज्ञाता हो। इन 5 सदस्यों में 3 तो ऐसे व्यक्ति हने आवश्यक थे, जो नियुक्ति के समय क्राउन की सेवा में कम से कम 10 वर्ष का अनुभव प्राप्त कर चुके हों।
(ii)       कार्यपालिका की कार्यवाही को सुचारू रूप से संचाल करने हेतु गवर्नर जनरल को नियम तथा आदेश बनाने का अधिकार दिया गया। इस प्रकार के नियमों के अनुसार पास किये गये अधिनियम और आदेश सपरिषद् गवर्नर जनरल के अधिनियम और आदेश कहलाते थे। नियम बनाने के इस अधिकार को लार्ड कैनिंग ने विभाग पद्धित आरम्भ की।
(iii)       भारत सचिव के हाथ में यह शक्ति रही कि वह प्रधान सेनापति को इस परिषद् का असाधारण सदस्य नियुक्त कर सके।
(iv)       किसी प्रान्त के गवर्नर या लेप्टिनेन्ट गवर्नर को असाधारण सदस्य के रूप में परिषद् की बैठक में भाग लेने की व्यवस्था की गई।
(v)       गवर्नर जनरल को यह अधिकार दिया गया कि वह अपनी अनुपस्थिति में किसी अन्य व्यक्ति को कौंसिल का अध्यक्ष नियुक्त कर सके। इस अध्यक्ष को गवर्नर जनरल के सारे अधिकार प्राप्त होते थे। वह केवल किसी कानून को स्वीकृत अस्वीकृत या संरक्षित नहीं कर सकता था।
(vi)       गवर्नर जनरल को कौंसिल के सदस्यों में कार्य-वितरण करने का अधिकार दिया गया। महत्त्वपूर्ण मामले गर्वनर जनरल की कौंसिल के समक्ष रखे जाते थे, जहाँ निर्णय बहुमत के आधार पर लिया जाता था, किन्तु अन्तिम स्वीकृति गवर्नर जनरल के हाथ में थी।

(ख) केन्द्रीय विधान-मण्डल में परिवर्तन (i)      कानून निर्माण के कार्य में सहायता के लिए गर्वनर जनरल को अपनी कौंसिल में 6 से 12 तक सदस्यों की वृद्धि करने का अधिकार दिया गया, किन्तु यह शर्त रखी गई कि इनमें कम से कम आधे सदस्य गैर-सरकारी होंगे। इन अतिरिक्त सदस्यों को गवर्नर जनरल दो वर्ष के लिए मनोनीत करता था।
(ii)       विधान परिषद् का अधिकार क्षेत्र कानून निर्माण तक सीमित था। इसे सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत के लिए कानून और नियम बनाने की शक्ति प्रदान की गई। इस प्रकार, कानून के सम्बन्ध में इसे सर्वोच्च शक्ति और अन्य विधान निर्माता निकायों के साथ समवर्ती शक्ति प्राप्त थी। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण देश तथा प्रान्तीय या स्थानीय मामलों से सम्बन्धित विषयों पर यह कानून बना सकती थी।
(iii)       सेना तथा उसका अनुशासन और संगठन, धर्म तथा धार्मिक रीति-रिवाजों, विदेशी शक्तियों से सम्बन्ध, राजनीतिक सम्बन्धों, सार्वजनिक ऋण, मुद्रा, डाक और तार, चुंगी तथा अन्य सरकारों, सिक्कों की ढलाई आदि से सम्बन्धित मामलों पर कोई बिल पेश करने से पूर्व जनरल की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक था।
(iv)       किसी भी बिल को कानून बनाने के लिए गवर्नर जनरल की स्वीकृति आवश्यक थी। गवर्नर जनरल को स्वीकृति देने या न देने का पूर्ण अधिकार था। वह किसी बिल को इंग्लैम्ड नरेश के विचारार्थ भी रख सकता था।
(v)       विधान परिषद् द्वारा पारित कोई विधेयक सपरिषद् भारत सचिव के सुझाव पर इंग्लैम्ड नरेश रद्द कर सकता था।
(vi)       गवर्नर जनरल को बिना अपनी कौंसिल से परामर्श लिए संकटकालीन परिस्थितियों में अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया। ये अध्यादेश 6 महीने तक लागू रह सकते थे, किन्तू 6 महीने से पहले भी भारत सचिव तथा उसकी कौंसिल और गवर्नर जनरल की विधान परिषद् उसे रद्द कर सकती थी।
(vii)      गवर्नर जनरल को किसी भी प्रान्तीय सरकार द्वारा निर्मित कानूनों को संशोधित या रद्द करने का अधिकार दिया गया था।
(viii)     गवर्नर जनरल को निषेधाधिकार का पूर्ण अधिकार दिया गया था।
(ix)       सपरिषद् गवर्नर जनरल को फोर्ट विलियम प्रेसीडेंसी, उत्तर-पश्चिमी प्रान्त और पंजाब के लिए कानून और विनियम बनाने का अधिकार दिया गया।

(x)       सपरिषद् गवर्नर जनरल को किसी नये प्रान्त बनाने, उनकी सीमाओं में परिवर्तन करने तथा आश्यकतानुसार विभाजित करने का अधिकार दिया गया।
(xi)       देशी रियासतों या अन्य राज्यों में भारत सरकार के लोक सेवकों पर सपरिषद् गवर्नर जनरल का क्षेत्रातिरिक्त अधिकार प्रदान किया गया।

(ग) प्रान्तीय विधान मण्डल से सम्बन्धित धाराएँ (i)     एस अधिनियम द्वारा बम्बई और मद्रास को प्रेसीडेंसी सरकारों को स्थानीय या प्रान्तीय विषयों के सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार वापस दे दिया गया।
(ii)       इन प्रान्तीय गवर्नरों को कानून तथा विनियम बनाने के लिए अपनी विधान परिषदों मे उसे प्रेसीडेंसी का एडवोकेट जनरल और कम से कम चार और अधिक से अधिक आठ अतिरिक्त सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार दिया गया।
(iii)       इन अतिरिक्त सदस्यों का कार्यकाल 2 वर्ष निर्धारित किया गया। इन अतिरिक्त सदस्यों में से कम से कम आधे सदस्यों का गैर-सरकारी होतना आवश्यक था।
(iv)       प्रान्तीय विधान परिषदों को प्रान्तों में शान्ति और अनुशासन की स्थापना के लिए कानून तथा नियम बनाने का अधिकार दिया गया, परन्तु वे संसदीय अधिनियम के विरूद्ध नहीं होने चाहिए।
(v)       प्रान्तीय विधान परिषदें, सेना, विदेशी तता राजनीतिक सम्बन्धों, मुद्रा, डाक और तार, सार्वजनिक प्रश्न आदि विषयों पर गवर्नर जनरल की अनुमति के बिना कोई कानून नहीं बना सकती थी, क्योंकि ये समस्त विभाग केन्द्रीय सरकार के अधिकार क्षेत्र में रखे गये थे।
(vi)       प्रान्तों के सार्वजनिक राजस्व से सम्बन्धित विधेयक गवर्नर या लेफ्टिनेंट गवर्नर की पूर्व अनुमित के बिना प्रान्तीय विधान परिषद् में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था। (vii)         प्रान्तों द्वारा पारित प्रत्येक कानून पर प्रान्तीय गवर्नर और जनरल दोनों की स्वीकृति आवश्यक थी।
(viii)     इस विधि के अनुसार बनाये गये प्रान्तीय कानूनों को भी इंग्लैम्ड नरेश भारत सचिव के माध्यम से रद्द कर सकता था। पुन्निया ने इस सम्बन्ध लिखा है कि, इस अधिनियम ने केवल बहुत मोटे तौर पर ही केन्द्रीय और प्रान्तीय विधान मण्डलों के पृथक्-पृथक् क्षेत्रों की सीमा निर्धारित करने का प्रयत्न किया। प्रान्तीय और स्थानीय महत्त्व के विषयों में गवर्नर जनरल की विधान परिषद् को सर्वोच्च तथा प्रान्तीय विधान मण्डलों के साथ-साथ समवर्ती शक्तियाँ प्राप्त हुई।

अधिनियम के दोष
अधिनियम के दोष -इस अधिनियम के प्रमुख दोष निम्नलिखित थे।
(1) अनिर्वाचित गैर-सरकारी सदस्य- स अधिनियम के द्वारा गैर-सरकारी भारतीयों को विधि निर्माण के कार्य में भाग लेने का अवसर दिया गया, परन्तु ये गैर-सरकारी सदस्य भारतीय जनता के प्रतिनिधि नहीं होते थे। वे गवर्नर जनरल के पिछलगुए थे। गवर्नर जनरल दीवानों, जमींदारों और देशी राजाओं या उनकी हाँ मे हाँ मिलाने वाले लोगों या सेवानिवृत कर्मचारियों में से गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति करते थे। अतः वे भारतीय जनता के विचारों तथा आकांक्षाओं का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते थे और न उन्हें भारतीयों के हितों की कोई विशेष चिन्ता होती थे। वे अपना मुख्य कार्य सरकार के आदेशों का पालन करना समझते थे और कानून निर्माण में विशेष रूचि नहीं लेते थे। ये केवल कभी-कभी कौंसिल की बैठक में उपस्थित होत थे। के.वी. पुन्निया के शब्दों में, जिन लोगों को परिषदों का सदस्य नियुक्त किया जाता था, वे इनकी बैठकों में अनिच्छा से आते थे और उन्हें वहाँ से शीघ्र-अतिशीघ्र निवृत होकर भागने की लगी रहती थी।

केन्द्रीय विधान मण्डल में ऐसे सदस्यों का उपस्थित होना या न होना भारतीयों की दृष्टि में कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता था। मि. मैकनील ने उसके सम्बन्ध में एक रोचक घटना का वर्णन करते हुए ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स में लिखा था कि, एक बार गवर्नर जनरल ने उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों से एक ऐसे महाराज को केन्द्रीय लैजिस्लेटिव कौंसिल का सदस्य नियुक्ति किया, जो अंग्रेजी भाषा बिल्कुल नहीं जानता था। उसे दो-भाषिया रखने की भी आज्ञा नहीं थी। कौंसिल की बैठक के पश्चात् महाराजा के एक सम्बन्धी ने पूछा, आपको कौंसिल की कार्यवाही में भाग लेते समय कठिनाई तो हुई होगी। महाराज ने उत्तर दिया, आरम्भ में मुझे बहुत कठिनाई हुई, परन्तु मुझे मनोनीत करने वाले गवर्नर जनरल की उपस्थिति में शीघ्र ही मेरा काम सुगम कर दिया। जब गवर्नर जनरल अपना हाथ ऊपर उठाता था, तो मैं भी अपना हाथ उठा दिया करता था और जब वह अपना हाथ नीचे करता था तो मैं भी अपना हाथ नीचे कर लेता था।

लैजिस्लेटिव कौंसिल में सम्मिलित सदस्यों का भारतीयों की दृष्टि में कोई महत्त्व नहीं था, क्योंकि वे कोई भी कार्य स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं कर सकते थे। सर हेनरी कॉटन ने अपनी पुस्तक में लिखा था कि, एक भारती डिप्टी कमिश्नर अपने प्रान्त के लेफ्टिनेंट गवर्नर को, जिसने उसे यह पद प्रदान किया है और जिसकी इच्छा पर उसकी भावी उन्नित निर्भर है, उसे ऐसी राय देने के लिए तैयार नहीं, जिसे वह अस्वीकार कर दे।

अधिनियम का महत्त्व

अधिनियम का महत्त्व 1861 का अधिनियम भारत के संवैधानिक इतिहास में एक विशेष स्थान रखता है। इसके साथ ही भारतीयों को सहयोगी नीति की शुरूआत हुई। इसने भारतीयों को लैजिस्लेटिव कौंसिलों के सदस्यों नियुक्त करके उन्हें पहली बार अपने देश के शासन प्रबन्ध में भाग लेने का अवसर प्रदान किया। जी.एन.सिंह ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, इसने गवर्नर जनरल को विधि निर्माण के कार्य में इस देश के लोगों को सम्मिलित करने में समर्थ बनाया।

सच तो यह है कि इस अधिनियम ने सर सैयद अहमद खाँ और बार्टल फ्रेरे जैसे प्रसिद्ध विद्वानों द्वारा बताई गई शासकीय त्रुटियों को दूर कर दिया। सर बार्टल फ्रेरे के शब्दों में, मेरा विचार है कि देशी तत्त्व को साथ जोड़ना इसिलए आवश्यक हो गया है कि हमारे लिए परोक्ष माँगो से यह जानने के अवसर कम और कम होते जा रहे है कि देशी लोग हमारे कानूनों के बारे में क्या सोचते हैं।

गैर-सरकारी सदस्यों के कौंसिल में सम्मिलित होने से भारतीयों के हृदय में तत्कालीन सरकार की गतिविधियों के बारे में गलतफहमी और सन्देह दूर हो गया। इस अधिनियम ने वास्तव में ऐसी व्यवस्था कर दी कि जिसने भारतीय लोगों के विचारों को जानने का अवसर मिल सके। भारतीयों को कौंसिलों की सदस्या मिलने से अंग्रेजों तथा भारतीयों की जातिगत शत्रुता कम होने की सम्भवना बढ़ी।

इस अधिनियम द्वारा प्रान्तीय विधान परिषदों को पुनः कानून बनाने का अधिकार दिया गया। इससे विधायी क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण की नीति आरम्भ हुई, जिसके फलस्वरूप, 1937 ई. में भारतीयों को प्रान्तीय स्वराज्य दिया गया। जी.एन. सिंह ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, इसके द्वारा बम्बई और मद्रास की विधान परिषदों की दुबारा कानून बनाने का अधिकार दिया गया और अन्य प्रान्तों के लिए भी ऐसी ही व्यवस्था की गई। इस तरह उस नीति का प्रारम्भ हुआ, जिसके कारण 1937 में प्रान्तों को 1935 के अधिनियम के अनुसार अन्दरूनी मामलों में स्वराज्य दे दिया गया। प्रो. कूपलैण्ड लिखते हैं कि, भारतीयों को कौंसिलों में सदस्यता मिलने तथा प्रानोतं के शक्तियों को पुनःप्राप्त करने से भारतीयकरण तथा विकेन्द्रीकरण की एक ऐसी नीति का श्रीगणेश हुआ, जो आगे चलकर स्वःशासन का आधार बनी। एम.वी. पाइली के शब्दों में, यह 20वीं शताब्दी के भारतीय विधान मण्डलों का प्राइमरी चार्टर था। इस अधिनियम ने सरकार का पूर्ण ढांचा प्रस्तुत कर दिया।

इस अधिनियम का अन्य संवैधानिक महत्त्व यह है कि इसके परिवर्तन से भारत में उत्तरदायी संस्था का सूत्रपात हुआ और जनता को अपने कष्ट को सरकार के समक्ष रखने का अवसर प्राप्त हुआ। यदि हम यह कहें कि इस अधिनियम ने उस शासन व्यवस्था की नींव रखी, जो भारत में ब्रिटिश शासन का अन्त होने तक बनी रही, तो यह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। गैर-सरकारी सदस्यों वाली विधान परिषदें, अध्यादेश की शक्ति, विभागों का वितरण आदि आज भी हमारे प्रशासन की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

इस अधिनियम का महत्त्व इस बात में भी निहित है कि इसने भारत में विभाग पद्धति आरम्भ की। इस अधिनियम की धारा आठ के अनुसार लार्ड कैंनिग ने कौंसिल का कार्य उसके सदस्यों में विभाजित कर दिया। इससे न केवल गवर्नर जनरल का बौझ हल्का हो गया, अपितु शासन की कार्य-कुशलता में वृद्धि हुई। इस अवस्था में भारत में प्रतिनिधि संस्थाओं के प्रारम्भ तथा विकास को प्रोत्साहन मिला। कोटमैन ने लिखा है कि, कौंसिल अधिनियम का पूर्ण प्रभाव यह रहा कि भारत में प्रजातंत्रीय सरकार की दिशा में विधायिका में प्रतिनिधित्व के माध्य से राजनैतिक क्षेत्र में कदम आगे बढ़े।

सारांश यह है कि भारतीय विधान परिषदों में सम्मिलित सभी सरकारी, गैर-सरकारी अतिरिक्त सदस्य किसी प्रकार भी भारतीय जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। वे ब्रिटिश सरकार के राजभक्त होते थे और सरकार की हाँ में हाँ मिलाते थे। अतः उनकी कानून बनाने में कोई रूचि नहीं थी। निःसन्देह भारतीयों के लिए यह सब निराशाजनक था।

मद्रास विधान परिषद् के सदस्य माननीय सुब्रह्मण्य अय्यर ने भारतीय कांग्रेस के पहले अधिवेशन में भाषण देते हुए कहा था कि, इन परिषदों का कार्य केवल कार्यपालिका के आदेशों को स्वीकृति देना और उन पर विधान मण्डल की मंजूरी की महुर लगाने तक ही समीति है। गैर-सरकारी सदस्यों के प्रभाव के बारे में उन्होंने कहा था कि, दुर्भाग्य की बात यह है इन गैर-सरकारों को कोई उत्तदायित्व अनुभवन नहीं करने दिया जाता और यदि उनमें कोई उसे बलात् हथिया भी लेता है, तो भी उन्हें इस बात का कोई अवसर नहीं दिया जाता कि स्वयं को उपयोगी बना सकें।

गैर-सरकारी सदस्यों की उदासीनता का मुख्य कारण यह था कि उन्हें कौंसिलों की कार्यवाही में उचित भाग लेने का अवसर नहीं दिया जाता था। वे सरकार के निर्णयों को प्रभावित नहीं कर सकते थे। उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास नहीं होने दिया गया था। उनका काम तो केवल सरकार की हाँ में हाँ मिलना होता ता। लैजिस्लेटिव कौंसिल में गैर-सरकारी सदस्यों की उपस्थिति का लाभ भारतीयों के स्थान पर ब्रिटिश सरकार को मिलता था। कृपाराम बम्बवाल ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, इस अधिनियम की सबसे बड़ी त्रुटि यह थी कि विधान परिषदें कार्यपालिका ऊपर कोई नियंत्रण नहीं रखती थी। उन पर इतने प्रतिबन्ध लगे हुए थे कि उनका सारा महत्त्व दिखावटी मालूम पड़ता था।

इस अधिनियम का उद्देश्य भारतीय जनता को विधान परिषदों में वास्तविक प्रतिनिधित्व देना नहीं था, क्योंकि इंग्लैण्ड की सरकार ने तो अधिनियम के पास होने से पूर्व ही यह घोषणा कर दी थी कि, उसका भारत वर्ष में उत्तरदायी सरकार की स्थापना करने का कोई इरादा नहीं है। सर चार्ल्स वुड ने संसद के समक्ष भाषण देते हुए जुलाई, 1861 में कहा था कि, आप सम्भवतः भारत में किसी एक स्थान पर ऐसे व्यक्तियों को इकट्ठा नहीं कर सकते, जो वहाँ के देशवासियों के वास्तविक प्रतिनिधि हों। अतः भारतीयों को प्रतिनिधित्व देने की बात करना सर्वथा असम्भव है। इतना होतने हुए भी चार्ल्स वुडने देशी राजाओं, भारतीय सामन्तों (जमींदारो) और उच्च वर्ग के भारतीयों को विधि निर्माण के कार्य के साथ मिलाना आवश्यक समझा। परन्तु भातीय सदस्यों के सम्बन्ध में डॉ. एस.आर. शर्मा का यह मत सही प्रतीत होता है कि, सरकार का यह विचार नहीं था कि वे कानून निर्माण में कोई कारगर भाग लें। वे तो कानून निर्माण की प्रक्रिया के साक्षीभर ही थे। इस प्रकार, 1861 के अधिनियम से जो आशा की गई थी, वह पूरी नहीं हुई। अतः भारतीयों का इस अधिनियम से असन्तुष्ट तथा निराश होना स्वाभाविक था।

(2) नाममात्र की विधान परिषदें- 1861 ई. में अधिनियम द्वारा निर्मित विधान परिषदें केवल नाममात्र की कानून बनाने वाली संस्थाएँ थीं। उन्हें संगठन और कार्यों की दृष्टि से भी विधान सभा नहीं कहा जा सकता था। वे तो केवल कानून बनाने के लिए समितियाँ मात्र थी। इस अधिनियम के द्वारा विधान परिषदों के अधिकार तथा शक्तियों को बहुत समिति कर दिया गया था। वे संसद की तरह काम नहीं कर सकती थीं। वे न तो प्रश्न पूछ सकती थी और न ही प्रस्ताव पेश कर सकती थी। उन्हें बजट पर विचार करने का अधिकार भी नहीं था। विधान परिषद् के सदस्यों को कार्यपालिका के सदस्यों को हटाने का अधिकार भी नहीं था। विधान परिषद् के सदस्यों को कार्यपालिका के सदस्यों को हटाने का अधिकार भी नहीं दिया गया था। इस प्रकार, विधान परिषदों का काम केवल कार्यपालिका को कानून बनाने में परामर्श तथा सहायता देना मात्र था। उनके सम्बन्ध में संवैधानिक सुधार प्रतिवेदन में कहा गया था कि, इन परिषदों का स्वरूप कार्यपालिका की समितियों जैसा था, जिनेक द्वारा कार्यपालिका विधि निर्माण के कार्य में परामर्श और सहायता प्राप्त करती थी और जनता को यह लाभ था कि विधि निर्माण कार्य का प्रचार होता था। इन विधान परिषदों में बने कानूनों को वास्तव में सरकारी आदेश बताना गलत न होगा। वे शिकायतो की जाँच नहीं कर सकती थीं तता किसी प्रकार की सूचना नहीं मांग सकती थीं या कार्यकारिणी की आलोचना नहीं कर सकती थी।

वास्तविकता तो यह है कि विधान परिषदों द्वारा बनाये गये कानून सरकारी आदेशों के अतिरिक्त औैर कुछ नहीं थे। प्रो. कुपलैण्ड ने इन परिषदों के कार्यों का इन सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है, ये परिषदें उन दरबारों जैसी थीं, जो भारतीय शासक पुराने समय से ही अपनी प्रजा की सम्मति जाने के लिए लगाया करते थे। श्रीराम शर्मा ने इ विधान परिषदों की समीक्षा करते हुए कहा है कि, निर्मित विधान परिषदें अपने संगठन और कार्यों की दृष्टि से विधान मण्डल नहीं थे। प्रत्येक परिषद् एक समिति थी, जिससे कार्यपालिका शासन विधान के सम्बन्ध में सहायता एवं परामर्श प्राप्त करती थी। विधियों शासकीय आदेश मात्र थीं। इसी से लार्ड मैकडानेल ने कहा है कि, 1861 के अधिनियम द्वारा जिन विधान परिषदों की स्थापना की गई, वे कानून बनाने कावील समितियाँ मात्र थीं। वे ऐसी समितियाँ थी, जिनसे कार्यपालिका को विधि-निर्माण में परमार्श तथा सहायता मिल जाती थी। जो विधेयक उनके सामने आते थे, उन्हीं पर विचार कर सकती थी उनके बाहर नहीं। न वे शिकायोतं के बार में कुछ पूछ-ताछ कर सकती थीं, न सूचना माँग सकती थीं और न कार्यपालिका के कार्यों की आलोचना कर सकती थी।

(3) गवर्नर जनरल की शक्तियों में असाधारण वृद्धि- 1861 ई. के अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल की शक्तियों में असाधरण रूप से वृद्धि कर दी गई थी। उसे अपनी विधान परिषद् और प्रान्तीय विधान परिषदों द्वारा पारित विधेयकों पर वीटो करने का अधिकार दिया गया था। इससे सारी अन्तिम शक्तियाँ गवर्नर जनरल के हाथ में आ गई थीं. अतः वह न केवल शासन सम्बन्धी माममों में, अपितु कानुनी मामलों मे भी अपनी मनमानी कर सकता था।

इस अधिनियम में सबसे अनुचित बाय यह थी कि गवर्नर जनरल को भारत में शान्ति और सुशासन बनाये रखने के लिए अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया था। इससे विधान परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों की उपस्थिति निरर्थक हो गई। वे केवल उदार अधिनायकवादी गवर्नर जनरल के सहायक मात्र बने रहे गये। माइकल एडवर्ड्स ने ठीक ही लिखा है कि, 1861 के अधिनियम द्वारा जिस भारतीय सरकार की कल्पना की गई वह स्वेच्छाकारी थी। उस पर कोई नियंत्रण न था, वाव-विवाद द्वारा उनमें ढीलापन अवश्य आ जाता था। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने गवर्नर जनरल को प्राप्त वीटो के सम्बन्ध में लीखा है कि, गवर्नर जनरल के इस अधिकार द्वारा ब्रिटिश सरकार को एक ऐसा ब्रह्मबाण प्राप्त हुआ है, जिसे अपने शासन के अन्तिम क्षणों तक अपने तर्कश में रखा।

(4) भारतीयों की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं- इस अधिनियम द्वारा भारत में कोई उत्तरदायी सरकार स्थापित नहीं की गई। दूसरे शब्दों में, इस अधिनियम से भारतीयों की महत्त्वकांक्षा पूरी नहीं हो सकी। अतः भारतीय इस अधिनियम से असन्तुष्ट थे। इसलिए उन्होंने 1861 के पास होने के कुछ समय पश्चात् ही इन विधान परिषदों में काफी बड़े सुधारों के लिए राजनीतिक आन्दोलन शुरू कर दिया। अतः ब्रिटिश सरकार को विवश होकर 1892 ई. में एक अधिनियम पारित करना पड़ा।
भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892 ई.
1861 ई. का इण्डियन कौंसिल्ज अधिनियम भारतीय राज्य प्रणाली में सुधार करने के लिए पास किया गया था, परन्तु वह अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त नही कर सका। अतः भारतीय 1861 ई. के अधिनियम से असन्तुष्ट थे। 1861 ई. के बाद भारतीयों में राजनीतिक चेतना तथा राष्ट्रीयता का विकास हुआ। फलस्वरूप, 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। इसने संवैधानिक सुधारों की माँग की, जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश ससद ने 1892 ई. का इण्डिन कौंसिल्ज अधिनियम पास किया, परन्तु भारतीयों ने कुछ समय तक इसे लार्ड र्क्रास के अधिनियम ना नाम दिये रखा। यद्यपि यह अधिनियम बहुत व्यापक तथा प्रभावशाली नहीं था, तथापि क्राउन के अधीन भारतीय शासन व्यवस्था के विकास के मार्ग एक निर्णायक पग अवश्य था।

अधिनियम के पारित होने के कारण
जी.एन. सिंह ने लिखा है कि, 1892 का अधिनियम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा कार्य का प्रथम परिणाम था। यह कथन पूर्ण रूप से सही प्रतीत नहीं होता, क्योंकि कांग्रेस के अतिरिक्त कुछ अन्य कारणों ने भी इस अधिनियम के पास होने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। डॉ. ए.के. मजूमदार का मानना है कि, 1892 के अधिनियम के पास होने के सम्बन्ध में लार्ड डफरिन की भूमिका इतनी सराहनीय थी कि वह इसके लिए लार्ड रिपना जैसा स्थान प्राप्त करने का अधिकारी है। इस प्रकार, 1892 के अधिनियम के पारित होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

1861 ई. के अधिनियम से भारतीयों को संतोष नहीं हुआ। वे अधिक से अधिक भारतीयों को स्वशासन में भाग लेने के पक्ष में थे तथा शासन सत्ता का विकेन्द्रीकरण चाहते थे। इस समय पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार, भारतीयों आर्थिक शोषण और ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति से भारतीयों में राजनीतिक जाग्रति आ गई थी। कांग्रेस की स्थापना से पूर्व भारत में विद्रोह की सम्भावनाएँ बहुत बढ़ चुकी थीं। अतः एक अंग्रेज रिटायर्ड अधिकारी ए.ओ. ह्युम ने 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की, ताकि उसके माध्यम से अंग्रेज सरकार को भारतीयों को तकलीफों के बारे में जानकारी प्राप्त हो सके।

कांग्रेस ने शुरू से ही 1861 के सुधारों को अपर्याप्त और निराशाजनक बताया और विधान परिषदों के विस्तार की माँग की। विधान परिषदों के अधिकांश सदस्य सरकारी होते थे। अतः कांग्रेस ने माँग की कि इनमें अधिकांश सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित होने चाहिए। कांग्रेस ने यह भी माँग की कि विधान परिषद् के सदस्यों को प्रशासन में समस्त विभागों के विषय में प्रश्न पूछने तथा बजट पर बहस करने का अधिकार दिया जाये। इसके अतिरिक्त कांग्रेस ने आगरा, अवध और पंजाब में विधान परिषदों की स्थापना के लिए माँग की। कांग्रेस ने अपने प्रथम अधिवेशन में अपनी इन माँगो के सम्बन्ध में एक प्रस्ताव पास किया। वह प्रस्ताव इस प्रकार था, यह कांग्रेस सर्वोच्च परिषद् तथा इस समय विद्यमान स्थानीय विधान परिषदों का काफी बड़े अनुपात्त में चुने हुए सदस्यों की व्यवस्था द्वारा और उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों, अवध और पंजाब के लिए भी इसी प्रकार की परिषदों की रचना द्रारा, सुधार और विस्तार अत्यावश्यक समझती है। इसका मत है कि सब बजटों को इन परिषदों में विचार के लिए भेजा जाना चाहिये। इसके अलावा इन परिषदों के सदस्यों को प्रशासन की सब शाखाओं के बारेे में कार्यपालिका से प्रश्न पूछने का अधिकार दिया जाना चाहिये।

दादा भाई नौराजी ने कहा था कि, यदि विधान परिषदों में प्रतिनिधित्व आरम्भ हो जाता है, तो सरकार को सबसे अदिक लाभ पहुँचेगा, क्योंकि आजकल जो कानून वे बनाते हैं, हम उनसे पूर्णतया प्रसन्न नहीं होते। यह सत्य है कि हमारे आदमी परिषद् में हैं, किन्तु हमें उनसे किसी प्रकार का स्पष्टीकरण माँगने का अधिकार नहीं है, क्योंकि वे हमारे प्रतिनिधि नहीं है और सरकार अपने आपको उस कानून की असंतुष्ट की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं कर सकती है, जिस कानून को हम पसन्द नहीं करते हैं। यदि हमारे अपने प्रतिनिधि गलती करें और किसी कानून को पास करा लें, जिसको हम नहीं चाहते, तो सरकार बहुत-सी अप्रियता से बच जायेगी। वे कहेंगे कि आप यहाँ प्रतिनिधि हैं, हमने समझा है कि आपकी इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करते थे और इसलिए हमने कानून पास दर दिया।

प्रारम्भ में सरकार का रूख कांग्रेस की माँग के प्रति सहानुभूति पूर्ण था, लेकिन 1888 के बाद यह बिल्कुल ही बदल दिया। लार्ड डफरिन की कांग्रेस की माँगों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी। अतः उसने (डफरिन) कांग्रेस पर सीधा कटाक्ष करते हुए कहा, कांग्रेस एक सूक्ष्म तथा अल्पसंख्या का ही प्रतिनिधित्व करती है तथा कांग्रेस की माँग अज्ञात में एक बड़ी छलांग के समान है। कलकत्ता में नवम्बर, 1889 में हुई वार्षिक सेण्ट एण्ड्रयूज के प्रतिभोज में उसने कांग्रेस की कटु आलोचना करते हुए कहा कि, कोई भी समझदार व्यक्ति यह कैसे सोच सकता है कि ब्रिटिश सरकार उन शानदार और विविध रूप वाले साम्राज्य के, जिसकी सुरक्षा और कल्याण के लिए वह ईश्वर की दृष्टि में और सभ्यता के सम्मुख उत्तरदायी है, प्रशासन पर इस बहुत ही छोटे-से अल्पमत का नियन्त्रण खुशी से हो जाने देगी।

इस प्रकार, लार्ड डफरीन ने कांग्रेस की कटु आलोचना की थी, लेकिन साथ ही साथ उसने देश के प्रशासन में भारतीयों का सहयोग लेना आवश्यक बतलाया कि सरकारी कानून जनता में लोकप्रिय हो सके। 1886 ई. में उसने (डफरिन) ने कहा था कि, जिन देशी लोगों से मैं मिला हूँ, उनमें ऐसे लोगों की संख्या काफी है, जो योग्य भी है और समझदार भी और जिनके राजभक्तिपूर्ण सहयोग पर निःसन्देह भरोसा किया जा सकता है। इस तथ्य के कारण कि उन्होंने सरकार का समर्थन किया है, सरकार के ऐसे कई कानून लोकप्रिय हो जायेंगे, जो अब बलपूर्वक विधान मण्डल में पास करा लिये गये प्रतीत होते हैं। यदि भारत सरकार के पीछे कुछ देशी लोग भी हों, तो भारत सरकार की जैसी स्थिति है कि मानों वह तूफानी समुद्र के बीच में एक अकेली चट्टान खड़ी है और लहरें एक साथ चारों ओर से आ-आकर उसकी जड़ पर चोट कर रही हैं, वह तब नहीं रहेगी।

लार्ड डफरिन ने आन्दोलन का जोश ठण्डा करने के लिए और भारत में सुधार के बारे में सुझाव देने के लिए 1888 ई. में अपनी परिषद् की एक कमेटी नियुक्त की। इस कमेटी ने सुधारों के सम्बन्ध में अपना सुझाव दिया कि विधान परिषद् को एक छोटी संसद के रूप में विकसित कर दिया जाये। इधर कांग्रेस भी प्रतिवर्ष प्रस्ताव पारित कर विधान परिषद् के ढाँचे में सुधार करने हेतु सरकार से आग्रह कर रही थी। प्रमुख समाचार-पत्र भी विधान परिषद् में अधिक भारतीयों की नियुक्ति तता कौंसिल के अधिकारों में वृद्धि करने की माँग कर रहे थे। लार्ड डफरिन ने कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर गृह-सरकार को सुझाव भेजा कि, ऐसे भारतीय भद्र पुरूषों को जो अपने प्रभाव तथा अपनी अपेक्षाओं से अपने देशवासियों में विश्वास उत्पन्न कर सकत हैं तथा जिनमें इतनी बुद्धि तथा क्षमता है कि वे देश के प्रशासकों की अपने सुझावों द्वारा सहायता कर सकें, सार्वजनिक कार्यों के प्रशासन में अधिक भाग लेने के अवसर दिये जायें। अंग्रेजी सरकार अपवनी किसी तरह जिम्मेवारी कम किए बिना भारतीय को प्रशासन में अधिक भाग दे। वायसराय की विधान परिषद् से प्रश्न पूछने का अधिकार दिया जाये, परन्तु इस हेतु वायसराय को आवश्यकता के अनुसार कुछ रूकावटें लगाने का अधिकार दिया जाये। प्रान्तों की विधान सभाओं का विस्तार किया जाये, उनमें कुछ चुने हुए सदस्य शामिल किये जायें, परन्तु संसदीय सरकार शुरू कर दी जाये, क्योंकि भारत ब्रिटिश साम्राज्य का अभिन्न अंग है और ब्रिटिश सरकार की जिम्मेवारी है कि भारत की विरोधी जातियों में न्याय स्थापित करे। सी.एल. आनन्द के शब्दो में, लार्ड डफरिन का यह सन्देश केवल इस कारण ही एक महत्त्वपूर्ण संवैधानिक प्रलेख नहीं ही कि अन्तगोतत्वा 1892 के अधिनियम में जो सुधार प्रस्तुत किये गये, वे इसमें दिखलायी गयी दिशा में ही थी, अपितु इसलिए भी कि इसमें विकेन्द्रीकरण, प्रशासन में भारत के अधिकाधिक साहचर्य और सर्वोच्च नियन्त्रण तथा प्राधिकार को अंग्रेजों क हाथों में बनाये रखने के वे सिद्धान्त निर्धारित किये गये, जो बाद के वर्षों में बारम्बार भारत में होने वाले संवैधानिक परिवतानों के लिए मार्गदर्शनक सिद्धान्त माने जाते रहे।

लार्ड डफरिन के सुझावों के आधार पर गवर्नर जनरल ने एक योजना तैयार की, जिसके सम्बन्ध में उसने स्वयं इस प्रकार कहा, मेरी इस योजना का उद्देश्य प्रान्तीय कौंसिलों की सदस्य संख्या तथा उनकी प्रतिष्ठा को बढ़ाना, उनके कार्यक्षेत्र को विस्तृत करना, उनमें कुछ निर्वाचित सदस्यों के लिए जाने की व्यवस्था करना और राजनीतिक संस्थाओं के रूप में उनके स्वरूप को व्यापक बनाना है। साथ ही गवर्नर जनरल ने यह बिल्कुल स्पष्ट कर दिया था कि उसके मन में भारत में संसदसीय शासन की स्थापना का विचार बिल्कुल ही नहीं था।

जिस समय भारत सरकार तथा ब्रिटिश सरकार के मध्य सुधारों के सम्बन्ध में पत्राचार हो रहा था, उस समय ब्रिटिश संसद सदस्य चार्ल्स ब्रेडला ने 1861 ई. के अधिनियम में संशोधन करने के लिए 1890 ई. में संसद में एक विधेयक प्रस्तुत किया। वह भारत का मित्र था तथा 1889 ई. में बम्बई में हुए कांग्रेस के 5वें अधिवेशन में सम्मिलित होकर देश लौटा था। उसने अपने विधेयक में कांग्रेस की माँगों को स्थान दिया था, लेकिन यह विधेयनक अन्य काम-काज की अधिक भीड़-भाड़ के कारण विचार के लिए संसद के सामने नहीं आ सका। ब्रिटिश सरकार ने लार्ड डफरीन की सिफारिशों के आधार पर 1890 ई. में एक विधेयक पेश किया, जिसे हाउस ऑफ लार्ड्स ने तो पास कर दिया, परन्तु आयरलैण्ड की समस्या में उलझे होने के कारण हाउस ऑफ कॉमन्स के सदस्य उसकी ओर ध्यान नहीं दे सके। अतः फरवरी 1892 ई. में एक नया बिल हाउस ऑफ लार्ड्स में पेश किया गया, जिसे दोनों सदनों में विचार-विमर्श के बाद 26मई, 1892 ई. में पास कर दिया। यह बिल पास होकर इण्डिय कौंसिल्ज अधिनियम, 1892 ई. के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

अधिनियम की प्रमुख धारायें

इस अधिनियम द्वारा तीन दिशाओं में परिवर्तन किये गये-परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि, परिषदों के अधिकार में वृद्धि तथा पार्षदों के संसदीय अधिकार में वृद्धि। इस अधिनियम की प्रस्तावना में घोषणा की गई, यहाँ यह वांछनीय है कि भारत के महाराज्यपाल की परिषद् के गठन और कार्यों के बारे में संसद के पहले अधिनियमों के मुख्य उपबन्ध इक्ट्ठे किये जायें और कुछ सीमा तक संशोधित किये जायें तथा बम्बई और फोर्ट सेन्ट जार्ज के सपरिषद् राज्यपालों के कानून तथा विनियम बनाने की शक्ति दी जाये और इसी प्रकार की व्यवस्था भारत के अन्य भागों में की जाये। इस अधिनियम की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित थीं-

(1) परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि
i.        इस अधिनियम द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान परिषदों में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई। केन्द्रीय विधान परिषद् में कम से कम 10 और अधिक से अधिक 16 अतिरिक्त सदस्य नियुक्त करने की व्यवस्था की गई।

ii.        इस अधिनियम द्वारा बम्बई तथा मद्रास की प्रान्तीय कौंसिलो में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या कम से कम 8 और अधिक से अधिक 20 तथा उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त तथा अवध में अधिकतम 15 अतिरिक्त सदस्य नियुक्त करने की व्यवस्था की गई।

iii.       अतिरिक्त सदस्यों का कार्यकाल दो वर्ष रखा गया और इसमें आधे सदस्य गैर-सरकारी होने आवश्यक थे।

iv.       गवर्नर जनजरल को यह अधिकार दिया गया कि वह अपनी परिषद् की सहायता से अतिरिक्त सदस्यों को मनोनीत करने के सम्बन्ध में उचित नियम बना सके, परन्तु इस विषय में भारत सचिव की स्वीकृति आवश्यक थी।

(2) विधान परिषदों के सदस्यों के अधिकारों में वृद्धि
i.        इस अधिनियम द्वारा विधान परिषद् के सदस्यों के अधिकारों में वृद्धि की गई। इसके अन्तर्गत सदस्यों को वार्षिक वित्त विवरम पर कार्यपालिका से प्रश्न पूछने और प्रस्ताव पेश करने का अधिकार दिया गया, लेकिन उन्हें बजट पर वोट देने तथा पूरक प्रश्न करने का अधिकार नहीं था। लार्ड कर्जन के अनुसार, इसका अभिप्रायः यह नहीं है कि हम भारत में बजट की एक-एक मद पर इस प्रकार मत प्रदान करेंगे, जिस प्रकार हम इस संसद में यहाँ करते हैं। किन्तु ऐसा सुझाव है कि कौंसिल के सदस्यों को इस बात का अवसर प्रदान किया जाये, कि वे सरकार की आर्थिक नीति के सम्बन्ध में पूर्ण स्वतन्त्र तथा उचित आलोचना कर सकें। कीथ के शब्दों में, बजट की एक-एक मद पर वोट देकर उसे पास करने या न करने का नहीं, अपति सरकार की आर्थिक नीति के पूर्ण, स्वतन्त्र और निष्पक्ष आलोचना करने का अधिकार दिया गया था।

ii.        सपरिषद् गवर्नर जनरल तथा सपरिषद् गवर्नरों को वार्षिक वित्त विवरण पर वाद-विवाद और प्रश्न पूछने के सम्बन्ध में नियम बनाने का अधिकार दिया गया।

iii.       परिषद् के सदस्यों को सार्वजनिक हित के विषयों पर प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया। कीथ के शब्दो में, ये प्रश्न गवर्नर जनरल या प्रान्तीय गवर्नरों द्वारा बनाये गये नियमों में नियत की गई शर्तो और प्रतिबन्धों के अन्दर रहकर ही पूछे जा सकते थे। किसी प्रश्नो को पूछने के लिए 6 दिन पूर्व विधान परिषद् के अध्यक्ष को सूचना देना आवश्यक था। विधान परिषद् के अध्यक्ष को यह अधिकार था कि वह बिना कारण बतलाए किसी भी प्रश्न को पूछने की मनाही कर सकता है।

iv.       प्रान्तीय विधान परिषदों को गवर्नर जनरल की स्वीकृति से नये और पुराने कानूनों में आवश्यकतानुसार रद्द करने की शक्ति दी गई। बनर्जी के शब्दो में, गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् के अधिकारों में प्रान्तीय परिषदों के इन अधिकारों से कोई कमी नहीं हुई।

 

(3) विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्य सम्मिलित करने की व्यवस्था
i.        गवर्नर जनरल और गवर्नर कतिपय प्रतिनिधि संस्थाओं की सिफारिश पर कुछ गैर-सरकारी सदस्यों को मनोनीत कर सकते थे। इस प्रकार, अप्रत्यक्ष निर्वाचन की प्रथा शुरू की गई। केन्द्रीय विधान परिषद् के 16 अतिरिक्त सदस्यों में से 6 सरकारी अधिकारी, 5 नामांकित गैर-सरकारी सदस्य तथा 5 निर्वाचित सदस्य थे। इन निर्वाचित सदस्यों में से 4 को गवर्नर जनरल प्रान्तीय कौंसिलों के गैर-सरकारी सदस्यों की सिफारिश पर नियुक्त करता था और एक को वह कलकत्ता चैम्बर ऑफ कॉमर्स की सिफारिश पर लेता था। इस प्रकार, केन्द्रीय विधान परिषद् में गैर-सरकारी सदस्यों की कुल संख्या 10 थी, जबकि सरकारी सदस्य 12 या इससे अधिक होते थे। गवर्नर जनरल की विधान परिषद् में सरकारी अधिकारि औेयं का बहुमत इसलिए रखा गया, ताकि सरकार को किसी प्रकार की कठिनाई न हो।

ii.        प्रान्तीय कौंसिलों में गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या अधिक से अधिक 8 थी। इन सदस्यों को बड़े-बड़ नगरों, नगरपालिकाओं, जिला बोर्डो, बड़े-बड़े जमींदारों तथा विश्वविद्यालयों की सिफारिशों पर नियुक्त किया जाता था। पुन्निया ने इस सम्बन्ध में लिखा है, निर्वाचन शब्द का सावधानीपूर्वक व्यवहार नहीं किया गया, लेकिन धीरे-धीरे जिन सुझावों की स्वीकृती दी गई, उससे वह व्यवस्था निर्वाचन से किसी अर्थ में भिन्न नहीं थी। इस अधिनियम की प्रमुख व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में श्री सी.एल. आनन्द लिखते हैं, अधिनियम द्वारा तीन दिशाओं में परिवर्तन किये गये। सभी परिषदों में सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई। सदस्यों को शासन की वित्तीय नीति की स्वतंत्रतापूर्वक आलोचना करने का अधिकार दिया गया, उन्हें प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया और परिषदों में निर्वाचित तत्त्व का प्रवेश हुआ।


अधिनियम के दोष

1892 ई. का अधिनियम भारतीयों को संतुष्ट नहीं कर सका, क्योंकि यह अनेक दृष्टियों से त्रुटिपूर्ण था। श्री फीरोजशाह मेहता के शब्दो में, इस विधेयक का निर्माण करते हुए प्रधानमंत्री तथा भारत सचिव को भारतीयों के सम्बन्ध में मिथ्या भावना-सी प्रतीत होती है, जो मानो सदैव अधिकाधिक मांगने में प्रवृत्त हो तथा जिनके लिए दूरदर्शी नीति यही है कि उन्हें यथासम्भव कम से कम दिया जाए। सरकारी विधेयक को उचित रूप से एक अत्यन्त उग्रतम प्रकार के स्टीम इंजन के रूप में वर्णित किया गया है, जिसमें से भाप उत्पन्न करने वाली आवश्यक सामग्री को ध्यानपूर्वक निकालकर अलग कर दिया गया है तथा उसके स्थान पर नकली रंग-बिरंगे ऐसे पदार्थ लगा दिये गये हों जो वैसे ही दिखाई दें। श्री देश पाण्डेय लिखते हैं, सन् 1882 का अधिनियम धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा तथा भारी आन्दोलन का परिणाम था, तो भी उसने भारतीयों को कुछ भी सारवान वस्तु नहीं दी। निर्वाचन पद्धति अस्पष्ट तथा अनुचित थी। विधान परिषदों के कार्य सीमित थे। सदस्यों को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था और गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या बहुत थोड़ी थी। इस अधिनियम के प्रमुख दोष निम्नलिखित थे-
(i)        ब्रिटिश संसद के बहतु से सदस्यों का विचार था कि भारत की विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों को सम्मिलित किया जाना चाहिए। मैनचेस्टर के पार्यियामेंट के सदस्य श्वान ने इस सम्बन्ध में यह शब्द कहे थे, निर्वाचन व्यवस्था से रहित कौंसिलों में किये गये कोई भी सुधार भारतीयों के लिए संतोषजनक नहीं हो सकते। अपने सभापति के भाषण में, जो उन्होने, 1895 में पूना में दिया, श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने ईस प्रकार अपने विचार प्रकट किये, यदि 1892...के भारतीय कौंसिल्ज अधिनियम को उसी भावना में क्रियान्वित किया जाए, जिसमें कि उसने बानने वालों ने सोचा था तथा यदि इससे सम्पूर्ण भारतीय जनता को कुछ उल्लेखनीय प्रतिनिधित्व दिया जाना है, न कि जनता के किसी छोटे से वर्ग को, निर्वाचित सदस्यों की संख्या में अवश्य ही काफी वृद्धि होनी चाहिए।

प्रसिद्ध उदारवादी नेता ग्लैडस्टोन ने भी परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की सम्मिलित करने पर जोर दिया। यद्यपि सरकार ने निर्वाचन सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की थी, परन्तु इस अधिनियम के नियमों में निर्वाचन शब्द तक नहीं था। इससे बढ़कर खेद की बात यह थी कि परिषद् के सदस्यों का चुनाव भारतीय जनता द्वारा नहीं किया जाता था।

1892 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में जो पहला प्रस्ताव पास किया गया, उसमें कहा गया, यह कांग्रेस भक्तिपूर्ण भावना से भारतीय परिषद् अधिनियम को स्वीकार करते हुए, जो अभी बनाया गया है, इस बात पर शोक प्रकट करती है कि लोगों को परिषदों के लिए अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार नहीं दिया गया है औैर आशा करती है कि इस अधिनियम के अधीन जो नियम बनाए जा रहे हैं, वे लोगों के प्रति काफी न्याय करेंगे। 1892 ई. में इलाहाबाद में व्योमेशचन्द्र बनर्जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में घोषणा की, यदि इस अधिनियम के अधीन बनाए हुए नियम असन्तोषजनक होंगे, तो उस समय तक आन्दोलन जारी रहेगा, जब तक कि ये नियम ठीक नहीं हो जाते और हम वह प्राप्त नहीं कर लेते जो कि हम ठीक समझते हैं और जिनके विषय में हमारे शासकों ने स्वंय विश्वास करना सिखाया है और हमें प्राप्त करने का अधिकार है।

इस अधिनियम द्वारा अपनाई गई निर्वाचन पद्धति नितान्त अस्पष्ट तथा अपूर्ण थी। व्यवस्थापिका सभाओं में केवल कुछ ही सदस्य चुने जाते थे और वे भी अप्रत्यक्ष चुनाव द्वारा चुने जाते थे। इसलिए वे जनता के वास्तविक प्रतिनिधि न होकर कुछ विशिष्ट वर्गों का ही प्रतिनिधित्व करते ते। पुन्निया के शब्दों में, निर्वाचन प्रणाली के परिषदों में कानूनी पेशा को प्रमुखता प्रदान की, जिसे कि इसका कोई हक नहीं था। यह समाज के अन्य वर्गों का प्रतिनिधित्व करने में एकदम विफल रही। गोखले के इस सम्बन्ध में लिखा है, अधिनियम की वास्तविक क्रियाशीलता उसके खोखलेपन को प्रकट करती है। बम्बई प्रान्त को 8 स्थान दिये गये। 2 स्थान तो भारत सरकार के द्वारा अपने नियमानुसार बम्बई विश्वविद्यालय एवं बम्बई कॉरपोरेशन को दिये गये। बम्बई सरकार में दो स्थान यूरोप के व्यापारी वर्ग को, एक स्थान दक्षिण के जमींदारों को, एक स्थान सिंध के जमींदारों को एवं दो स्थान सामान्ज जनता को दिये गये। स्पष्ट है कि उसमें सार्वजनिक प्रतिनिधित्व प्रायः शून्य था। दादाभाई नौराजी ने घोषणा की कि, न केवल वर्तमान नियम इस अधिनियम की पूर्ति के लिए असंतोषनजक है, बल्कि जैसा कि ग्लैडस्टोन ने इस अधिनियम की व्याख्या की है, न केवल भारत के इन लोगों को परिषदों में पूर्ण सजीव प्रतिनिधित्व प्राप्त करना है, अपितु उनकी वर्तमान बहुत सीमीत शक्तियों में विस्तार करवाना है, जिसके बिना ये परिषदें केवल नाममात्र की हैं। गोपालकृष्ण गोखले ने निराश होते हुए कहा था कि, मैं यह नहीं कहूँगा कि ये नियम 1892 के अधिनियम को समाप्त करने के उद्देश्य से बनाये गये हैं, परन्तु यह कहूँगा कि उन अधिकारों, जिसने कि इन नियमों की रूप-रेखा तैयार की है, यदि उससे इस अधिनियम के उद्देश्य को नष्ट करने के लिए योजना बनाने को कहा जाता, तो वह इससे अच्छा नहीं कर सकता था। कीथ ने लिखा है कि, परिषदों को जो नयी शक्तियाँ दी गईं, वे बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं थीं।

(ii)       विधान मण्डल में सरकार के विरूद्ध केवल चुने हुए गैर-सरकारी सदस्य आवाज उठा सकते थे और वे केवल 5 थे। परिषद् में सरकारी अधिकारियों का बहुमत होने से सरकार उन निर्वाचित सदस्यों की कोई विशेष परवाह नहीं करती थी और सरकारी अधिकारियों की सहायता से अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकती थी। शिरोल ने लिखा है कि, 1892 का भारतीय कौंसिल अधिनियम ऐसा पहला प्रयास था, जिसमें चुनाव सिद्धान्त को स्वीकृति प्रदान की गई, जिसमें भारतीय गैर-सरकारी मत का प्रतिनिधित्व होता था। पर इसका पैमाना अतिसूक्ष्म था और यह अप्रत्यक्ष था।

(iii)       परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या नाममात्र की थी। जोर गैर-सरकारी सदस्य थे, वे भी सरकार के राजभक्त तथा हाँ में हाँ मिलाने वाले ते। सर बार्निस पीकाक के शब्दों में, वह सदैव यही समझता था तब अब भी उसका वही विचार था कि कौंसिल की सदस्यता का पद एक ऊँचा तथा आदरणीय था, किन्तु यदि वह यह विश्वास कर ले कि इस कौंसिल का विधान इस प्रकार का था कि उसके सदस्य इस बात के लिए बाध्य थे कि वे किसी कानून को उस प्रकार बनाएं, जैसा कि नियंत्रण बोर्ड अथवा डायेक्टरों की समिति उन्हें आज्ञा करे, तो उसे कहना चाहिए कि एक ऊँचे पद के स्थान पर एक ऐसा पद था, जिसे कोई व्यक्ति, जिसे अपने आदर तथा प्रतिष्ठा का ध्यान हो, ग्रहण करने के लिए तत्पर न होता तथा वह ऐसे पद पद पर कार्य करने के स्थान पर त्याग-पत्र देना उचित समझता। उसका विश्वास था कि व्यवस्थापिका कौंसिल के प्रत्येक सदस्य का विश्वास तथा कर्त्तव्य यह था कि वह अपने विवक तथा बुद्धि से कार्य करे।

गवर्नर जनरल और गवर्नर अपने समर्थकों को ही परिषद् में नियुक्त करते थे। इसके अतिरिक्त सदस्यों की संख्या इतनी कम थी कि वे करोड़ों भारतीयों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते थे। श्री श्वान तक ने परिषदों में इन गैर-सरकारी सदस्यों की वृद्धि को बहुत ही तुच्छ तथा दुःखदायी कहा था। आर.सी. दत्त के शब्दों में, केवल आधा दर्जन निर्वाचित सदस्य 30 या 40 करोड़ लोगों की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते थे। इस प्रकार, विधान परिषदों का विस्तार इतना संतोषनजक नहीं था कि भारतीय सन्तुष्ट हो सकें। विधान परिषदों के अधिकार अत्यन्त सीमित थे। स्मिथ के कथानुसार, बजट पर चर्चा की जा सकती थी, किन्तु तभी जब कार्यकारिणी अनुमानित आँकड़ों को निश्चित कर देती थी। विधान परिषद् के सदस्यों को पूरक प्रश्न पूछने या सरकारी उत्तर पर बहस करने का अधिकार नहीं था। उन्हें बजट पर प्रस्तावों पर वोट देने का अधिकार नहीं था। वे कार्यपालिका से कोई प्रश्न तभी पूछ सकते थे, जबकि उन्होंने 6 दिन पूर्व उसकी सूचना कौंसिल के अध्यक्ष को दे दी हो। विधान परिषद् के अध्यक्ष को अधिकार था कि वह बिना कारण बताये किसी भी प्रश्न के पूछने की मनाही कर सकता था। इस प्रकार, विधायिका सभाओं का कार्यपालिका पर नहीं के बराबर नियंत्रण था।

पूरक प्रश्नों के सम्बन्ध में लार्ड लैन्सडाउन ने 1892 में इस प्रकार विचार प्रकट किये, प्रश्न इस प्रकार के होने चाहिएं, जिनमें केवल सम्मति प्रकट करने की प्रार्थना हो। उनमें किसी प्रकार की तर्क-भावना, कल्पना तथा मानहानिपूर्ण भाषा का प्रयोग नहीं होना चाहिए। एक प्रश्न के दिये गये उत्तर में किसी प्रकार की चर्चा की अनुमति नहीं थी। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के कथनानुसार, इन बन्धनों के कारण एक उपयोगी व्यवस्था का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जाता है। हाउस ऑफ कॉमन्स में, जब कि प्रश्न का उत्तर दे दिया जाता है, तो उसी विषय पर मंत्रियों से अन्य प्रश्न किये जाते हैं, जिससे और अधिक स्पष्टीकरण प्राप्त किया जा सके अथवा किसी प्रकार की मिथ्या भावना अथवा भ्रम मिटा जा सके। हाउस ऑफ लार्ड्स में तो प्रश्न पूछने के सम्बन्ध में इससे भी अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त है। इस प्रकार स्वतंत्रता का एक उद्देश्य सरकार के सामने यह था कि इस प्रकार के प्रश्नों से अनेक प्रकार की गहलतफहमिया ँ दूर हो जातीं थी, जो सरकार की किसी भी कार्रवाई तथा अफसरों के कार्य-व्यवहार के सम्बन्ध में उत्पन्न हुई हों। इस दृष्टिकोण से इस सम्बन्ध में विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार के सम्मुख जो उद्देश्य था, उससी प्राप्ति का सबसे अच्छा उपाय यही था कि हाउस ऑफ कॉमन्स की पद्धति को अपनाया जाता, जिस पद्धति में युगों की बुद्धिमत्ता अंकित है।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के मतानुसार, इन बन्धनों के कारण एक उपयोगी व्यवस्थापिका का उद्देश्य ही व्यर्थ हो गया। विधान परिषद् को बजट पर कोई नियंत्रण प्राप्त नहीं था। सदस्य बजट में कोई कटौती नहीं कर सकते थे। केवल अपने सुझाव दे सकते थे। दादाभाई नौराजी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1896 ई. के अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा, 1892 ई. के अधिनियम के अनुसार कीसी भी सदस्य को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी भी प्रकार का प्रस्ताव कर सके अथवा इस प्रकार की चर्चा में गुटबन्दी कर सकते। इस अधिनियम के अनुसार अथवा इसके अधीन नियमों के सम्बन्ध में किसी भी प्रश्न का उत्तर देने में इस अधिकार का प्रयोग कर सके। इस प्रकार वित्तीय चर्चा अथवा प्रश्न पूछने की दी गयी सुविधाओं अथवा अधिकारों के सम्बन्ध में अनुचित व्यवस्था है। इस अधिनियम के अधीन बनाये गये नियमों में किसी प्रकार का रद्दोबदल और संशोधन ऐसी बैठकों में नहीं किया जायेगा, जो विधि या नियम बनाने के लिए बुलायी गयी हो। इस प्रकार हम एक स्वेच्छासारी शासन के अधीन चल रहे हैं। मदनमोहन मालवीय के अनुसार, इस अधिनियम से भारतीयों को उनके देश की शासन व्यवस्था में कोई वास्तविक अधिकार प्राप्त न हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि देश का प्रशासन देश की जनता के वास्तविक लाभ के लिए नहीं हो रहा। इसके विपरीत इसमें बहुत फिजूलखर्ची हो रही है। उन्होंने यह भी देखा कि करों का सत्र उस सामान्य स्तर से बहुत ऊँचा है, जिससे कि देश की शासन व्यवस्था को अच्छी प्रकार से चालू रखा जा सके। सरकार का फौजी व्यय देश की शक्ति से बहुत अधिक था। जनता के प्राप्त किये गये राजस्व का बहुत बड़ा अंश साम्राज्यवादी कार्यों के लिए व्यय किया जा रहा था।

डब्ल्यू सी. बनर्जी के कथानुसार, अधिनियम हमें बहुत कुछ देने का दावा नहीं करता। हमें अपना आन्दोलन चालु रखना चाहिए तथा तब तक आराम नहीं लेने चाहिए, जब तक हमें वह कुछ प्राप्त नहीं हो जाता, जैसा कि हम सब विचार तथा विश्वास करते हैं कि हमें ऐसा प्राप्त करने का अधिकार है। सी.वाई. चिन्तामणि के अनुसार, सदस्यों को जो सुविधाएँ तथा अवसर प्राप्त थे, वे अत्यन्त सीमित थे तथा उमें से कोई भी उपयोगी सिद्ध न हुए। श्री रमेशचन्द्र दत्त के अनुसार, 1892 ई. का अधिनियम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की माँगों की अपेक्षा बहुत कम था। उन्होंने लखनऊ में दिये गये अपने अध्यक्षीय भाषण में भी कहा था कि, अस्पष्ट तथा उलझे हुए नियमों के अधीन निर्वाचित आधे दर्जन दसद्य ऐसे प्रान्त की जनता के विचारों को कठिनाई से ही प्रकट कर सकते हैं, जिस प्रान्त की जनसंख्या तीन चार करोड़ अथवा इससे अधिक हो। हम अपने देश के प्रशासन पर अपना पूर्ण नियंत्रण नहीं चाहते, किन्तु सरकार के सम्मुख अपने विचार प्रकट करने के लिए हम किसी न किसी समुचित मार्ग अथवा साधन की अवश्य माँग करते हैं, जिससे कि सरकार हमारी भलाई के लिए किसी समस्या अथवा प्रश्न का निर्णय करने से पूर्व हमारे विचारों का ध्यान रख सके, तथापि कोई भी व्यक्ति इससे इस प्रकार का परिणाम निकला सकता है कि यद्यपि 1892 का अधिनियम भारती राष्ट्रीय कांग्रेस की माँगों की अपेक्षा बहुत कम था, तथापि वह उस समय की स्थिति के अनुसार काफी प्रगतिपूर्ण था। चुनाव के सिद्धान्त को स्वीकार करने के द्वारा तथा शासन प्रबन्ध पर व्यवस्थापिका सभाओं के कुछ नियंत्रण प्रदान किये जाने के कारम इससे भावी प्रगति के लिए मार्ग खुल गया, जिसके अनुसार भारतीयों के हाथों में देश के प्रशासन का काफी नियंत्रण सौंपा जाना था।

(v)       यह अधिनियम न तो भारतीयों की आकांक्षा को पूरा कर सका और न सरकार को ही इससे संतोष हुआ। इस अधिनियम द्वारा भारतीयों को कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं हुए। इसलिए भारतीय इसे प्रतिक्रियावादी समझते थे, जबकि सूदरी ओर सरकार ने निर्वाचित सदस्यों को विधान मण्डलों में सम्मिलित किया था। अतः वह उसे आवश्यकता से अधिक समझती थी। इस अधिनियम द्वारा अपनाये गए निर्वाचन तथा प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त इतने संकीर्ण थे कि भारतीयों की आकांक्षा की पूर्ति नहीं कर सके। फिर भी, यह तो स्वीकार करना पड़ेगा कि फीरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले जैसे उच्च मानसिक क्षमता वाले गैर-सरकारी सदस्यों का प्रशासन के रूख पर काफी प्रभाव पड़ा और सरकार ने यह महसूस किया कि उसे वफादार भारतीयों का सहयोग प्राप्त हो रहा है। एस.आर. शर्मा के शब्दों में, यह नहीं हो सकता था कि फीरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले और दिनेश वाचा जैसे लोग किसी भी सभा में हों और उस पर केवल उनकी उपस्थिति से ही प्रभाव न पड़े। इसके अलावा, इन परिषदों ने ऐसे राजनीतिक रंगमंचों का काम किया जिन पर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की अग्रगामी टुकड़ी बेरोकटोक आगे बढ़ सकती थी।

मदनमोहन मालवीय ने हा था कि, इस अधिनियम के द्वारा देश के प्रशासन में भारतीयों की कोई आवाज नहीं रही। उन्हें यह पता लगा कि देश का प्रशासन उनके हित में नहीं चलाया जा रहा, बल्कि यह व्यर्थ की फिजूलखर्ची के आधार पर चलाया जा रहा था। भारतीयों ने यह महसूस किया कि टेक्सों का बोझ उससे कहीं अधिक था, जितना कि अच्छे प्रशासन के लिए आवश्यक था, सरकार का सैनिक खर्च देश के सहन करने की क्षमता से अधिक था और भारतीय राजस्व का बहुत अधिक भाग ब्रिटिश साम्राज्य के हितों के लिए खर्च किया जा रहा है।

(vi)       इस अधिनियम द्वारा भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा देने की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। प्रो. हीरालाल सिंह लिखते हैं कि, कौंसिलों का अधिकार-क्षेत्र इतना सीमित था और अतिरिक्त सदस्यों की संख्या इतनी कम थी कि राजनीतिक शिक्षा के लिए उनका उपोयगी होना बहुत कठिन था। ब्रिटिश सरकार भी इस अधिनियम द्वारा भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा नहीं देना चाहती थी। लार्ड कर्जन ने इस सम्बन्ध में यह शब्द कहे, इन सुधारों का उद्देश्य भारतीय कौंसिलों तथा भारतीय जनमत के श्रेष्ठ प्ररतिनिधियों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करना और कौसिलों तथा सरकारों के विचारों के आदान-प्रदान के लिए अधिक से अधिक अवसर प्रदान करना है। निःसन्देह यह सुधार भारतीयों के लिए बहुत निराशानाजनक थे।

1892 के सुधारों के पश्चात् भी विधान परिषदें नाममात्र की परिषदें ही बनी रहीं। इस अधिनियम द्वारा भारतीयों को कोई विशेष अधिकार नहीं दिये गये थे। इसलिए उन्होंने इस सुधारों को अपर्याप्त तथा असंतोषजनक बताया और स्वशासन की माँग दुबारा शुरू की।


अधिनियम का महत्त्व

अनेक त्रुटियों के बावजुद भी 1892 का अधिनियम भारत के संवैधानिक विकास की दिशा में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कदम था। विधान परिषद् के एक सदस्य सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के अनुसार, यह अधिनियम प्रतिनिधि सरकार की स्थापना की ओर प्रथम प्रमुख कदम था।

यह पहला अवसर था कि भारतीयों को उच्च राजनीतिक पदों का उत्तरदायित्व सौंपा गया तथा उनसे नीति सम्बन्धी परामर्श लिया जाने लगा। इस अधिनियम ने गोपालकृष्ण गोखले, राम बिहारी घोष और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे योग्य तथा प्रभावशाली भारतीयों को गवर्नर जनरल और उसकी परिषदों के सदस्यों के साथ बैठने का अवसर प्रदान किया। यद्यपि ये महान् व्यक्ति परिषदों में सरकारी सदस्यों के बहुमत के कारण अपनी बात नहीं मनवा सके, तथापि उन्होंने देश के लिए बनाये जाने वाले कानूनो पर अपनी प्रतिभा, विद्वता, राजनीतिक बुद्धिमत्ता तथा संसदीय योग्यता की गहरी छाप डाली। यद्यपि वे (भारतीय सदस्य) सरकारी अधिकारियों के केवल एक तिहाई थे, फिर भी उनके विचारों पर काफी ध्यान दिया जाता था, और उनकी बात आदर के साथ सुनी जाती थी। डॉ. आर.सी मजूमदार ने लिखा है कि, ब्रिटिश सरकार इन प्रतिभावन व्यक्तियों के परामर्श को खुल्लम-खुल्ला मानने से बहुत हिचकिचाती थी, क्योंकि ऐसा करना इस बात का प्रमाण था कि भारतीय नेता शासन प्रबन्ध में उनसे भी श्रेष्ठ हैं, लेकिन फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि ये सदस्य शासन प्रबन्ध को प्रभावित किये बिना न रह सके।

1892 के अधिनियम द्वारा पहली बार भारत में परोक्ष रूप से निर्वाचन के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया गया था। अधिनियम में निर्वाचन शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, फिर भी जैसाकि अधिनियम के उद्देश्यों पर बोलते हुए ग्लैडस्टोन ने कहा था कि, हमारे सामने बड़ा प्रश्न असली और गहरी दिलचस्पी का प्रश्न है-भारतीय शासन में निर्वाचन के तत्त्व को शुरू करने का। यह ठीक है कि इस विधेयक की भाषा निर्वाचन के सिद्धान्त को प्रस्तुत करती हुई नहीं कही जा सकती, फिर भी उसका इरादा इस सिद्धान्त को अपनाने के लिए रास्ता बनाने का ही है। इसलिए यह कहा गया है कि, वस्तुतः उत्तरदायी शासन की स्थापना 1861 ई. से नहीं, बल्कि 1892 ई. से आरम्भ हुई।

विधान परिषदों के वित्तीय अधिकारों में वृद्धि इस अधिनियम की बहुत बड़ी देन थी। इससे पूर्व परिषद् के सदस्यों को सरकार की आर्थिक नीति की आलोचना करने या उस पर वाद-विवाद करने का अधिकार नहीं था। 1892 के अधिनियम द्वारा गैर-सरकारी सदस्यों को भी सरकार की आर्थिक नीति पर स्वतन्त्र और पूरा विचार-विर्मश करने का अधिकार दिया गया। इससे सरकार को गलतफहमियों तथा त्रुटियों को दूर करने का अवसर प्राप्त हो गया।

इस अधिनियम द्वारा भारतीय सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई और उनको पहली बार बजट पर बहस करने तथा सार्वजनिक हित के विषयों पर प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया, जो संसदीय पद्धति में एक बहुत बड़ा कदम था। परिषद् के सदस्यों को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था। प्रश्न पूछने पर जो प्रतिबन्ध लगे हुए थे, वे इतने व्यापक नहीं थे, जितने की इंग्लैण्ड में कॉमन्स सबा में प्रश्न पूछने पर लगे हुए थे। निःसन्देह यह एक उल्लेखनीय प्रगति थी। संवैधानिक सुधार के प्रतिवेदन में 1866-92 के बीच प्रगति पर टिप्पणी करते हुए कहा गया कि, 1861 में तो लोग यह कहते थे कि हमारी अपनी पसन्द के कुछ थोडे से भारतीय हमारे कानूनों के बारे में क्या कुछ कहते हैं, यह सुन लेना अच्छा ही है, पर 1892 में वे यह कहने लगे कि भारीतोयं की सलाह और आलोचना से हमारे कानूनों में निश्चित रूप से सुधार हुआ है, यह सलाह और आलोचना हमें और मिलनी चाहिये और यदि सम्भव हो, तो हमें सलाह देने वाले लोगों का चुनाव स्वयं जनता ही करे। रॉबर्ट्स ने कहा है कि, यह अधिनियम भारतीय स्वशानस की दिशा में न सही, परन्तु उच्चतम् प्रशासनिक कार्य में भारतीयों ं के सहयोग की दिशा में एक महान् कदम अवश्य था। कोटमैन के शब्दों में, इस अधिनियम में प्रकारान्तर से संसदयी स्वशासन की शुरूआत की ओर पग उठाया गया।

इस अधिनियम के महत्त्व का मूल्यांकन करते हुए एक आलोचन ने लिखा है कि, यह संक्षिप्त विधान मण्डलों के रूप में परिषदों को दृष्टिकोण और उन परिषदों को भ्रूण संसद मानने वाले शिक्षित भारतीयों के दृष्टिकोण के बीच समझौता बनाने का प्रयत्न था। उत्तरदायी शासन का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था करने के लिए शिक्षित वर्ग को बढ़ाने के लिए या भावी निर्वाचन मण्डल की नींव डालने के लिए, उनको नियन्त्रित करने के लिए तो कोई प्रयत्न नहीं किया, फिर भी इस अधिनियम ने जान-बूझकर निर्वाचन के विचार से छेड़खानी करने का प्रयत्न किया।

डॉ. सुभाष कश्यप ने इस सम्बन्ध में लिखा है, यद्यपि 1892 के अधिनियम द्वारा विधान परिषदों के सदस्यों को दिये गये अधिकार अत्यन्त सीमित थे और अब भी उन्हें मतदान करने, प्रस्ताव अथवा विधेयक उपस्थित करने तथा पूरक प्रश्न आदि के आवश्यक अधिकार नहीं मिले थे, किन्तु इनता निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि 1892 के अधिनियम ने यह स्वीकार कर लिया था कि विधान परिषदों का कार्य मात्र विधायी और परामर्श देने का नहीं था और इस दृष्टि से अधिनियम प्रतिनिधिक सरकार की स्थापना की ओर प्रथम कदम था। पहली बार इस अधिनियम ने शासन में कुछ प्रतिनिधिक अंश का समावेश किया तथा भारतीय सदस्यों को भी सरकारी विधेयकों पर तथा बजट जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार प्रकट करने तथा सरकार के कृत्यों के बारे में प्रश्न पूछने के कुछ न कुछ अधिकार प्रदान किये। निःसन्देह यह अधिनियम संवैधानिक सुधार की दिशा में प्रथम चरण था। किन्तु आज जब हम देखते हैं, तो लगता है कि जो कुछ किया गया, वह सारहीन तथा खोखला था। वस्तुतः इस समय भी यह कांग्रेस की माँग और आशाओं से बहुत कम था। विधान परिषद् के गैर-सरकारी सदस्यों की भाषणों में, तत्कालीन समाचार-पत्रों में छपे लेखों में तथा भारतीय कांग्रेस की बैठकों में व्याख्यानों और प्रस्तावों आदि सभी में 1892 के सुधारों के प्रति अपर्याप्त और असंतोष का भाव साफ साफ अभिव्यक्त किया गया था। सच यह था कि परिषदों के अधिकार तो सीमित थे ही, उनके गैर-सरकारी सदस्यों के अधिकार और भी संकुचित तथा व्यवहारतः थोथे थे, क्योंकि सरकारा द्वारा मनोनीत होने के कारण परोक्ष रीति से निर्वाचित गैर-सरकारी सदस्यों का भी जी सरकार होना स्वाभाविक था, और भी गैर-सरकारी सदस्यों की तथा उनमें भी भारतीयों की सदस्यता बहुत कम थी। केन्द्रीय तथा प्रान्तीय दोनों स्तरों पर विधान परिषदों में सरकार तथा ब्रिटिश भक्त लोगों का ही बाहुल्य कायम रहा। वास्तविक जनसाधारण अथवा सच्चे जनमत को प्रतिनिधित्व मिलना तो अभी दूर की बात थी। उस गन्तव्य की ओर सफल यात्रा 20बी पूर्वार्द्ध की कहानी है।

प्रधान के अनुसार, ब्रिटिश सरकार कानून बनाने वाली परिषदों को अपनी कठपूतली बनाना चाहती थी, जबकि भारतीय उनको प्रारम्भिक संसद (पार्लियामेंट) बनाना चाहते थें। 1892 का अधिनियम दोनों बातों में बीच का मार्ग था। इस उपबन्ध के परिणाम को समझते हुए पंडित मदनमोहन मालवीय ने कहा, इस अधिनियम के द्वारा देश के प्रशासन में भारतीयों की कोई आवाज नहीं रही। उन्हें पता लगा कि देश का प्रशासन उनके हित में नहीं चलाया जा रहा था। भारतीयों ने यह महसूस किया कि टेक्सों का बोझ उसेस कहीं अधिक था, जितना कि अच्छे प्रशासन के लिए आवश्यक था, सरकार का सैनिक खर्च देश के सहन करने की क्षमता से अधिक था और भारतीय राजस्व का बुहत अधिक भाग ब्रिटिश साम्राज्य के हितों के लिए खर्च किया जा रहा है।

1892 के अधिनियम द्वारा जो परिवर्तन किये गये, उसका सारांश बताते हुए दादाभाई नौराजी ने कहा, इस अधिनियम के अधीन किसी भी सदस्य को प्रस्ताव प्रस्तुत करने अथवा परिषद् में किसी वित्तीय विवाद पर मतदान करवाने या अधिनियम के अधीन बनाये गये किसी नियम अथवा प्रश्न पर मतदान की माँग करने का अधिकार नहीं होगा। भारतीयों को दी गयी रियायतों का इस प्रकार का असंतोषनजक स्वरूप है। इस अधिनियम के अधीन बनाये गए नियमों में विधान परिषदों की बैठकों में कोई संशोधन नहीं किया जा सकेगा। इस तरह से हम अब बातों में एक निरंकुश शासन के अधीन है।

प्रो. सूद के अनुसार, 1892 के भारतीय परिषद् अधिनियम ने केन्द्रीय तथा प्रान्तीय धारा सभाओं में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ायी। यद्यपि निर्वाचन शब्द का प्रयोग इसमें नही किया गया, इसने सिफारिशों के आधार पर मनोनीत करने के वेष में निर्वाचन सिद्धान्त को प्रविष्ट किया और इसने धारा सभाओं के कार्यों में वृद्धि की।

निष्कर्तः 1892 का अधिनियम 1861 ई. के अधिनियम की तुलना में अधिक प्रगतिशील था, क्योंकि इसके द्वारा कुछ अंश तक भारतीयों की माँगों को पूरा किया गया था। अन्त में, यदि हम यह कहें कि इस अधिनियम द्वारा भारत में अप्रत्यक्ष रूप से संसदीय सरकार की नींव रखी गयी थी, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

मार्ले-मिण्टो सुधार (भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 ई.)
1892 ई. के इण्डियन कौंसिल्ज अधिनियम के 70 वर्ष पश्चात् इसी प्रकार का एक और अधिनियम पास किया गया। इस अधिनियम को 1909 ई. का इण्डियन कौंसिल्ज अधिनियम कहते हैं। यह भारत के संवैधानिक विकास की दिशा में अगला कदम था। इसके जन्मदाता भारत सचिव मार्ले तथा गवर्नर जनरल लार्ड मिण्टो थे। इन्ही के नाम पर इसे मार्ले-मिण्टो सुधार कहते हैं। रॉलिन्सन ने लिखा है कि, 1909 के इण्डियन कौंसिल्ज अधिनियम ने कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन न करते हुए भी भारत को स्वशासन की सड़क के प्रथम चरण तक पहुँचा दिया।

अधिनियम के पारित होने के कारण

1909 के अधिनियम के पाहित होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे।
(1)       1892 के अधिनियम के प्रति असंतोष- 1892 का अधिनियम भारतीयों को सन्तुष्ट नहीं कर सका था, क्योंकि इसमें उनकी आकांक्षाओ की पूर्ति नहीं की गई थी। अतः उनमें विशेष रूप से उग्रवादियों में असंतोष की भावना ज्यों कि त्यो बनी रही। व्यवस्थापिका सभा परामर्शदात्री संस्था के अतिरिक्त और कुछ न थी, जिसका प्रभाव सरकार के निर्णयों पर नाममात्र का था। निर्वाचन की व्यवस्था एक दिखावा मात्र थी। परिषदों के अतिरिक्त गैर-सरकारी सदस्यों की वृद्धि भी आँसू पोंछने के समान थी। परिषदों के अधिकार क्षेत्र काफी सीमित थे और उनके सदस्यों की शक्ति पर विभिन्न प्रकार के प्रतिबन्ध लगे हुए थे। सदस्यों को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था और नही वे बजट के विभिन्न अंग्रो पर वोट दे सकते थे। उन्हें सरकार की वित्तीय नीति पर आलोचना करने का अधिकार नहीं था। इन दोनों के कारण 1892 के अधिनियम से भारतीयों को बहुत निराशा हुई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने और अधिक सुधारों के लिए आन्दोलन शुरू कर दिया, किन्तु ब्रिटिश सरकार ने सहानुभूतिपूर्ण रूख नहीं अपनाया, जिसके फलस्वरूप देश में राजनीतिक असंतोष और अशांति फैल गई। इसे दूर करने के लिए शासन में सुधार लाना आवश्यक हो गया।

(2)       राष्ट्रीय महाविपत्तियों का प्रभाव- अंग्रेजी शासन के विरूद्ध भारतीयों में भयंकर असंतोष विद्यमान था। इसमें अकाल और प्लेग ने आग में घी का कार्य किया। 1895-96 में भारत में भयंकर अकाल पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप हजारों व्यक्ति मृत्यु का ग्रास हो गये। 1897 ई. में प्लेग की भयंकर महामारी फैली। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार इस महामारी में लगभग 2 लाख व्यक्ति मृत्यु की भेटं चढ़ गये। अंग्रेज सैनिकों ने प्लेग ग्रस्त व्यक्तियों को सहायता देने के स्थान पर उनसे अपमानजनक व्यवहार किया। इससे जनता में विद्रोह की आग भड़क उठी। यहाँ तक कि महाराष्ट्र के एक व्यक्ति दामोदर ने क्रुद्ध होकर प्लेग कमिश्नर मि. रेण्ड और एक अन्य सैन्य अधिकारी मि. आयर्स्ट को गोली मार दी। दामोदर को इस अपराध के लिए मृत्यु दण्ड दिया गया और लोकमान्य तिलक को अपने भाषणों और लेखों द्वारा भारतीय जनता को भड़काने के अपराध में 18 महीने के कारावास का दण्ड दिया गया। इन सब घटनाओं से भारतीय जनता के असंतोष में और अधिक वृद्धि हुई।

(3)       लार्ड कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीति- पुन्निया के शब्दो में, हमारे देश में राजनीतिक अशांति के विकास में लार्ड कर्जन का वायसराय काल (1898-1905) तक महत्त्वपूर्ण सोपान रहा है। लार्ड कर्जन 1898 से 1905 ई. तक भारत के गवर्नर जनरल रहे। वे एक महान् साम्राज्यवादी तथा प्रतिक्रियावादी व्यक्ति थे। उसने भारतीयों की भावनाओं तथा आकांक्षाओं का अनादर किया। उसने प्रशासन की कार्यकुशलता के नाम पर राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने के लिए कलकत्ता निगम अधिनियम (1899), भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम (1904) और बगाल का विभाजन (1905) आदि कुछ ऐसे कदम उठाये, जिससे राष्ट्रवादियों की भावना को गहरी चोट पहुँची। उसने प्रायः अपने भाषणों में भारतीय जनता को उत्तेजित करने वाले शब्द प्रयोग किये। 1904 ई. में दिये गये भाषण में उसने घोषणा की कि सिविल सर्विसेज के उच्च पदों पर केवल अंग्रेज ही नियुक्त किये जाने चाहिये, क्योंकि शासक जाति के सदस्य होने के नाते वे भारतीयों से अधिक योग्य एवं श्रेष्ठ होते हैं। 1905 ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में उसके द्वारा दिया गया भाषण भारतीयों के लिए अपमानजनक था, उसके इन कार्यों से जनसाधरण में राष्ट्रीय चेतना का असाधारण रूप से विकास हुआ। गोखले के शब्दों में, लार्ड कर्जन ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए वही कार्य किया, जो मुगल साम्राज्य के लिए औरंगजेब ने किया था।

लार्ड कर्जन ने भारतीय राष्ट्रीयता के बढ़ते हुए ज्वार को रोकने के लिए 16 अक्टूबर, 1905 को बंगाल विभाजन कर दिया। उसने प्रशासनिक कुशलता के नाम पर हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने का प्रयास किया। उसने यह कहकर मुसलमानों का समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न किया कि बंगाल विभाजन का उद्देश्य मुसलमानों के लिए एक अलग प्रान्त पूर्वी बंगाल का निर्माण करना है। श्री. ए.सी. मजूमदार ने लिखा है कि, लोगों में आपस में फूट डालकर इस भावना को कुचल देने का पक्का निश्चय करके लार्ड कर्जन पूर्वी बंगाल गया और वहाँ उसने इस कार्य के लिए विशेष रूप से बुलाई गई मुसलमानों की एक सभा में कहा कि इस विभाजन में उसका उद्देश्य बंगाल के प्रशासन को कुछ सुविधा देना ही नहीं, अपितु एक मुसलमान प्रान्त निर्माण करना भी था, जिसमें इस्लाम धर्म प्रधान रहे और उसके अनुयायियों का पलड़ा भारी रहे।

 

इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि लार्ड कर्जन साम्प्रदायिक दंगे करवाने में भी सफल रहा। फिर भी, सारे देश के लोगों ने इस विभाजन का घोर विरोध किया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और विपिनचन्द्र पाल के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने बंगाल के इस विभाजन के विरूद्ध एक अभूतपूर्व आन्दोलन शरू किया। सारे देश ने बंगाल-विभाजन का एक स्वर से विरोध किया और जनसाधारण का अंग्रेज जाति की न्यायप्रियता से विश्वास उठ गया। उस समय हर नगर तथा गाँव वन्दे मातरम् के राष्ट्रीयगान से गूँज उठा। बंग-भंग से कांग्रेस में उग्रवादियों का प्रभाव बढ़ गया। उदारवादी दल के नेता गोपालकृष्ण गोखले ने कहा था कि, अधिकांश लोगों का विश्वास अंग्रेजों की ईमानदारी और न्याय से उठता जा रहा है। हमारे नवयुवक पूछने लगे हैं कि यदि अच्छे संवैधानिक आन्दोलन का परिणाम अपमान और बंग-भंग होना है, तो उससे लाभ क्या है। इसी प्रकार लोग गरमदली बनते हैं।

डॉ. महादेव प्रसाद शर्मा ने लिखा है कि, राष्ट्रवादी भारत लार्ड कर्जन के इन कार्यों से अपना धैर्य खो बैठा और कांग्रेस में उग्रपंथियों का जोर बढ़ गया। इल्बर्ट विधेयक विवाद से, जो पाठ ग्रहण किये गये थे, वे काम में लाये जाने लगे। सरकार ने इनका दमन किया और तरूण बंगाल ने इसका उत्तर आतंकवादी आन्दोलन आरम्भ करके दिया।

लार्ड कर्जन ने इन कार्यों से जनता का रोष चरम सीमा पर पहुँच गया। डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, उसका कलकत्ता निगम की शक्तियों को कम करना, उसका ऑफिशियल सीक्रेट्स अधिनियम, उसका विश्वविद्यालयों को सरकारी बना देना, जिससे शिक्षा महंगी हो गई...और अन्त में बंगाल का विभाजन, इन सब ने राजभक्त भारत की कमर तोड़ दी और राष्ट्र में एक नई भावना जगाई। कलकत्ता आने वाले अपने जिस भाषण में उसने हमें मिथ्याचारी बताया था, उससे भी अधिक हमारे आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने वाले उसका व्यापक आरोप था कि हम भारतीय लोग अपने परिवेश के कारण, अपने उत्तराधिकार के कारण और अपने पालन-पोषण के ढंग के कारण ब्रिटिश शासन के अधीन किसी भी उच्च पद की जिम्मेदारियों को सम्भालने के अयोग्य हैं। लार्ड मार्ले ने भी अपनी पुस्तक रिकलैक्शन्स में लार्ड कर्जन के बारे में लिखा है कि, कर्जन के केन्द्रीकरण की नीति में उदारवादी सिद्धान्तों, महारानी विक्टोरिया की घोषणा का उल्लंघन, भारतीय नैतिकता के विरूद्ध घृणास्पद शब्दों का व्यवहार तथा बंग-भंग जैसी नीतियों ने लार्ड कर्जन के शासनकाल को अत्यन्त लोकप्रिय तथा क्रान्तिपूर्ण बना दिया।

(4)       विदेश घटनाओं का प्रभाव- इस अवधि में विदेशों में कुछ ऐसी राजनीतिक घटनाएँ घटी, जिनका भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन पर व्यापक प्रभाव पड़ा। 1896 ई. में छोटे से अबीसीनिया ने इटली को तथा 1905 ई. में ऐशिया के छोटे से देश जापान ने युरोप के एक महादन देश रूस को पराजित कर दिया। इन घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि यूरोपीयन शक्तियाँ अजेय नहीं है। इससे एशियावासियों के हृदय में एक नवीन चेतना उत्पन्न हुई। एशिया में एक नये युग का उद्भव हुआ। इससे भारतीयों में भी आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास की भावना प्रबल हो उछी। वे अपने मातृ-भूमि को स्वतन्त्रत देखने के लिए व्याकुल हो उठे। लार्ड कर्जन ने इस सम्बन्ध में यह शब्द कहे, जापान की इस विजय की गूँज नवचेतना की अंगड़ाई लेती हुई पूर्व की गलियों में एक धमाके की तरह पहुँची है।

(5)       भारतीयों का विदेशों में अपमान-दक्षिणी अफ्रीका, फिजी और कनाडा में भारतीयों को धृणा की दृष्टि से देखा जाता था और उसने अपमानजनक व्यवहार भी किया जाता था। नेटाल और ट्रान्सवाल में तो भारतीयों को 3 पौण्ड पोल टैक्स भी देना पड़ता था और वे रात को 9 बजे बाद घरों से बाहर नहीं निकल सकते थे। इसी प्रकार दक्षिणी आफ्रीका में भारतीयों पर अनेक प्रकार के अनुचित प्रतिबन्ध थे, जिनके कारण उनका जीवन बहुत दुःखी था। उदाहरणस्वरूप, भारतीयों को अपने नाम पर भूमि खरीदने का अधिकार नहीं था। उनके बच्चे वहाँ की अच्ची शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते थे। उन्हें यूरोपियों के मकान से दूर मकान बनाकर रहना पड़ता था। वे रेल के प्रथम श्रेणी के डब्बे में यात्रा नहीं कर सकते थे।

1907 ई. में ट्रान्सवाल सरकार ने एशियाटिक रजिस्ट्रेशन अधिनियम पास किया। इसके अनुसार भारतीयों को अपराधियों की तरह सरकारी दफ्तरों में अपने नाम आदि लिखवाने पड़ते थे और रजिस्टर पर अपनी अंगुलियों की छाप देकर अपना पंजीकरण करवाना पड़ता था। इस अधिनियम ने भारतीयों के अपमान को चरम सीमा पर पहुँचा दिया। भारतीयों ने यह अनुभव किया कि यदि भारत में राष्ट्रीय सरकार होती, तो उन्हें इस अपमान का सामना न करना पड़ता।

महात्मा गाँधी ने ट्रान्सवाल सरकार के 1907 के अधिनियम के विरूद्ध आन्दोलन किया। तिलक ने अपने समाचार-पत्र केसरी द्वारा अंग्रेजों की रंग-भेद नीति के विरूद्ध प्रचार करना शुरू किया। उन्होंने कहा कि, अपनी घटिया सरकार भी विदेशी सरकार से बहुत अच्छी है। फलस्वरूप भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का उद्भव हुआ और वे ब्रिटिश सरकार के सुधार की माँग करने लगे।

(6)       भारतीयों की आर्थिक दुर्दशा- 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत की आर्थिक दशा बहुत बिगड़ गई। भू-राजस्व में वृद्धि कर दी गई, सिंचाई कर की दरें बढा दी गई। उद्योगों का नाश हो गया। जीवन के लिए प्रतिदिन काम में आने वाली आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ गये। शिक्षित नवयुवकों में नैराश्य छाने लगा, क्योंकि उनके लिए अच्छी नौकरी पाने के सभी रास्ते बन्द थे। मध्यम वर्ग के लोगों के लिए बढ़ती हुई महँगाई के कारण गुजारा करना कठिन हो गया। इस प्रकार, भारतीयों की आर्थिक हालत बहुत गिर गई, जिससे उनमें निराशा और असंतोष की भावना फैलने लगी। उनका रूख ब्रिटेन-विरोधी हो गया।

(7)       पत्र-पत्रिकाओं और भाषणों का योगदान- राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास में स्वतन्त्र-पत्र पत्रिकाओं और भाषणों का योग बहुत महत्त्वपूर्ण रहा। केसरी, न्यू इण्डिया, वन्दे मातरम्, युगान्तर, हिन्दू, अमृत बाजार पत्रिका, आदि पत्रों ने ब्रिटिश साम्राज्य की बुराइयों का पर्दाफास किया और भारतीयों में नवजागरण का संदेश फैलाया। तिलक, विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपतराय जैसे उग्रवादी नेताओं ने देश के विभन्न भागों का दौरा किया। उन्होंने अपने भाषणों द्वारा जनता में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत की तथा अंग्रेजों की अन्यायपूर्ण नीति के प्रति सावधान किया।

तिलक ने महाराष्ट्र के, विपिनचन्द्र पाल ने बंगाल के और लाला लाजपतारय ने पंजाब के नवयुवकों में उग्रवादिता को फैलाया और वहाँ की जनता को वीर, साहसी और निडर बना दिया। भारत असैनिक विद्रोह के जन्मदाता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र के लोगों में देशभक्ति और राष्ट्रीयता की भावनाओं का संचार करने के लिए गणपति और शिवाजी उत्सव मनाने आरम्भ कर दिया। 1895 ई. में शिवाजी उत्सव में अपने उद्दीपक भाषण में तिलक ने कहा था कि, यदि चोर हमारे घर में घुस आएं और हमने उनको बाहर निकालने लायक शक्ति न हो, तो हमें उन्हें मकान के अन्दर बन्द करके जीते-जी ही जला देने में तनिक न हिचकना चाहिए। दण्ड संहिता से ऊँचा उठकर पवित्र भगवद्गीता के सूक्ष्म वातावरण में पहुँचने और महापुरूषों के कर्मों का चिन्तन करो।

तिलक ने अकालग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया और वहां के लोगों को प्रेरित किया कि वे व लगान की छूट की माँग करे। यही नहीं, उन्होंने अपने प्रसिद्ध समाचार-पत्र केसरी में बंग-भंग का विरोध किया और ऐसे लेख लिखे, जिससे देश में भारी आन्दोलन शरु हो गया। तिलक ने हँसते-हँसते कई बार जेल यात्राएँ करके तथा विभन्न कष्ट झेलकर अपने देशवासियों को अत्याचारों के विरूद्ध लड़ना सिखाया। मिस्टर डब्ल्यू. एस. ब्लण्ट के शब्दों में, तिलक एक ऐसा देशभक्त था, जिसने अपने भाषणों तथा लेखों की अपेक्षा अपने जीवन तथा चरित्र के द्वारा राष्ट्रीय आन्दोलन में महान् देन दी।

एक अन्य गरमदली नेता विपिनचन्द्र पाल ने बंगाल में अंग्रेजों के विरूद्ध आन्दोलन को तेज किया। उन्होंने बंगाल विभाजन को राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने का तथा हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने का एक प्रयत्न बताकर उनकी निन्दा की। भूपेन्द्रनाथ दत्त ने अपनी पत्रिका युगान्तर के एक लेख में लिखा था कि, क्या शक्ति के उपासक बंगवासी रक्त बहाने से घबरा जायेंगे? इस देश में अंग्रेजों की संख्या डेढ लाख से अधिक नहीं तथा एक जिले में तो उनकी संख्या बहुत ही न्यून है। यदि तुम्हारा संकल्प दृढ़ हो तो अंग्रेजी राज एक ही दिन में समाप्त हो सकता है। देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना जीवन अपर्ण कर दो, परन्तु उसके पूर्व कम से कम एक अंग्रेज का जीवन समाप्त कर दो। इसी प्रकार पंजाब केसरी लाला लाजपतराय ने पंजाबियों को अपने उग्र भाषणों द्वारा अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध भड़काया। इस प्रकार, उग्रवादी नेताओं के विचारों से भारतीयों को यह विश्वास हो गया कि उदारवादियों की भिक्षावृत्थि नीति से स्वतन्त्रता की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसके लिए सरकार के विरूद्ध सबल आन्दोलन की आवश्यकता है। उग्रवादी आन्दोलन का देश की जनता पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। कांग्रेस में उदारवादियों का प्रभाव कम होने लगा। सरकार को यह भय हुआ कि कांग्रेस की बागड़ोर उग्रवादियों के हाथों में जा सकती है। अतः उसने अपने शासन में सुधार लाना आवश्यक समझा।

मार्ल ने 23 फरवरी, 1909 ई. को हाउस ऑफ लार्ड्स में बोलते हुए कहा था कि, इस प्रकार की योजना पर विचार करते समय हमें तीन प्रकार के लोगों का ध्यान रखना होगा। एक ओर उग्रवादी है, जो ऐसा मोहक स्वप्न देखते हैं कि किसी दिन वे हमको भारत से खदेड़ देंगे। एक दूसरा समुदाय भी है, जो इस प्रकार के विचार नहीं रखता, वरन् यह आशा रखता है कि भारत को औपनिवेशक ढंग का स्वराज्य मिलेगा। इसके बाद तीसरा वर्ग है, जो इसे अधिक कुछ नहीं मांगता कि उसे हमारे प्रशान में सहयोग का अवसर दिया जाये। मेरा विश्वास है कि सुधारों का यह प्रबाव होगा कि यह दूसरा वर्ग को औपनिवेशिक स्वराज्य की आशा करता है, तीसरे वर्ग में सम्मिलित हो जायेगा, जो इतने से ही संतुष्ट हो जायेगा कि उसे उचित और पूरे तरीक के शासन में सम्मिलित कर लिया जाये।

(9)       सरकार की दमन नीति और आतंकवादी कार्य-ब्रिटिश सरकार ने एक ओर राष्ट्रीय कांग्रेस को कुचलने के लिए मुसलमानों को हिन्दुओं से पृथक् करने का प्रतय्न किया, तो दूसरी ओर उसने राजनीतिक अशांति को रोके के लिए प्रतिक्रियावादी तथा दमनकारी नीति को अपनाया, जिसके कारण नवयुवकों में क्रान्ति और आतंकवाद की भावना फैली। आतंकवादी संवैधानिक तरीकों में विश्वास नहीं करते थे तथा हिंसात्मक तरीके अपनाने के पक्ष में थे। परिणामस्वरूप देश के विभन्न भागों में क्रान्तिकारी घटनाएँ घटने लगीं। 1907 में बंगाल के लैफ्टिनैंट गवर्नर की गाड़ी को मेदिनीपुर के निकट एक बम द्वारा उड़ाने का प्रयत्न किया गया। इसके बाद ढाका के डिप्टी क्लैक्टर की हत्या कर दी गयी। 30 अप्रैल, 1908 को एक बम फेंकने से मुजफ्फपुर के सैशन जज के स्थान पर दो अंग्रेज महिलाएं-श्रीमती कैनेडी और कुमारी केनेडी काल की भेंट हुई। इस प्रकार की घटनाएँ न केवल पंजाब में, अपितु, महाराष्ट्र, राजस्थान तता मद्रास आदि स्थानों पर भी घटित हुए। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने इन्दें दबाने के लिए अपना दमन चक्र जोरों से चलाया, परन्तु इसका कोई विशेष लाभ न हुआ। राजनीतिक अशांति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। ऐसे वातावरण में सरकार ने गैर-क्रान्तिकारियों को जीतने के लिए संवैधानिक सुधार करना आवश्यक समझा।

(10)      कांग्रेस की माँग-1905 ई. में कांग्रेस ने अपने उद्देश्य के सम्बन्ध में श्री गोखले की अध्यक्षता में बनारस में एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें कहा गया कि, भारत का शासन भारतीयों के हित में होना और कालान्तर में भारत में भी उसी प्रकार का शासन स्थापित होना चाहिए, जैसाकि ब्रिटिश साम्राज्य के अन्य स्वशासित उपनिवेशों में है। कांग्रेस अध्यक्ष श्री गोखले ने यह भी माँग की कि प्रान्तीय तथा केन्द्रीय विधान परिषदों में सुधार लाया जाना चाहिए। उन्होंने स्वयं भारत सचिव लार्ड मार्ले से भेंट की और इस बात पर जोर दिया कि इस समय भारतीयों को कुछ वास्तविक रियायतें देने की तीव्र आवश्यकता है। मार्ले ने औपनिवेशिक स्वशासन पर अपनी स्वीकृति नहीं दी, परन्तु उचित सुधार करने का वायदा किया।

(11)      साम्प्रदायिकता का उदय-भारत में राष्ट्रीयता के प्रवाह को रोकने के लिए अंग्रेजों ने फूट डालो और शासन करो की नीति को अपनाया। इस हेतु उन्होंने मुसलमानों को प्रोत्साहित कर भारतीय राजनीति में साम्प्रादियकता के बीज बो दिये। यह बात अब सिद्ध हो चुकी है कि भारत के गवर्नर जनरल लार्ड मिण्टोने मुसलमानों के एक वर्ग को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे शिष्ट मण्डल बनाकर उसके पास आयें और पृथक् निर्वाचन के अधिकार की माँग करें। वायसराय लार्ड मिण्टो के निजी प्रतोत्साहन पर हिज हाइनेस सर आगा खाँ के नेतृत्व में एक शिष्ट मण्डल 1 अक्टूबर, 1906 ई. को वायसराय से मिला और उसने मुसलमानों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व की माँग की। लार्ड मिण्टोने शिष्ट मण्डल के सदस्यों का स्वागत किया और उनकी माँगों को पूरा करने का वचन दिया। वस्तुतः भारत में साम्प्रदायिक निर्वाचन पद्धति का जन्मदाता लार्ड मिण्टो ही था। वी.बी. कुलकर्णी लिखते हैं कि, गवर्नर जनरल ने शिष्ट मण्डल द्वारा पेश की गई माँगों तथा उनके पक्ष में दिये गये तर्कों को महत्त्व न देते हुए भी शिष्ट मण्डल का स्वागत किया, क्योंकि उसने इसे मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच फूट डालने का एक बहुमुल्य अवसर समझा।
30 दिसम्बर, 1906 को मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। उसने 1908 और 1909 ई. में अपनी पृथक् निर्वाचन मण्डल की माँगों को फिर दुहराया। इस प्रकार, साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के लिए सुधार की आवश्यकता पड़ी।

(12)      इंग्लैण्ड में उदार और सुधारवादी मंत्रिमण्डल का आगमन- दिसम्बर, 1905 में इंग्लैण्ड में उदारवादियों का मंत्रिमण्डल बना। मार्ले भारत सचिव बना। वह भारतीय समस्याओं से पूर्ण सहानूभूति रखता था। तत्कालीन अनुदारदली वायसराय लार्ड मिण्टो भी राजनीतिक सुधारों के रूप में भारतीयों को कुच रियायतें देने के पक्ष में था। ये दोनों राज्याधिकारी भारत में द्रुतगति से फैल रही अशान्ति को भी रोकना चाहते थे। इसके अतिरिक्त भारत सचिव जॉन मार्ले नाममात्र का शासनक बनकर नहीं रहना चाहता था। अतः उसने 6 जून, 1906 को मिण्टो को एक पत्र लिखा था, मैं समझता हूँ कि हम दोनों में आधारभूत मतभेद कोई नहीं है। इंग्लैण्ड की राजनीतिक संस्थाओं को भारत में रहने वाले राष्ट्रों के अनुकूल ढालने के लिए जितना कुछ आप कर रहे हैं, मेरे विचार से उससे लेशमात्र भी अधिक कुछ करना न तो वांछनीय है, न ही सम्भव है और यहाँ तक कि सोचा भी नहीं जा सकता। हर कोई हमें यह चेतावनी देता है कि भारत में एक नयी भावना बढ़ रही है और फैल रही है। आप उसी भावना से शासन करते नहीं रह सकते, चाहे उनके बारे में आपके विचार कुछ भी क्यों न हो, किन्तु आपको कांग्रेस पार्टी से और उसके सिद्धान्तों से व्यवहार करना ही पड़ेगा। यह पक्की समझ रखिये की शीघ्र ही मुसलमान भी आपके विरूद्ध कांग्रेसियों से मिल जायेंगे।
इस पत्र से स्पष्ट है कि मार्ले भारत में तेजी से बदलती हुई परिस्थितियों से परिचित था। इसलिए उसने गवर्नर जनरल के सुधार के लिए कदम उठाने को कहा। लार्ड मिण्टोने सुधार के सम्बन्ध में प्रस्ताव तैयार करने के लिए अपनी कार्यकारिणी परिषद् की एक कमेटी नियुक्त की, जिसके अध्यक्ष सर ए.एरंडल थे, लेकिन उसने समिति के लिए एक निर्देश पत्र भी तैयार कर दिया।

एरंडल कमेटी ने काफी विचार-विमर्श के बाद अक्टूबर, 1906 ई. को अपनी रिपोर्ट पेश की। तत्पश्चात् लार्ड मिण्टो ने इस रिपोर्ट की छानबीन करके एक प्रलेख तैयार किया और उसे मार्च, 1907 में भारत सचिव के पास भेज दिया। जॉन मार्ले ने इस प्रलेख में दिये गये सुझावों का निरीक्षण करने के बाद भारत सरकार को यह अधिकार दिया कि वह इन सुझावों के सम्बन्ध में प्रान्तीय सरकारों की राय प्राप्त करे। प्रान्तों की राय प्राप्त करने के पश्चात् भारत सरकार ने अपनी रिपोर्ट में कुछ परिवर्तन किये और फिर संशोधित पत्र को भारत सचिव के समक्ष प्रस्तुत किया। इस कार्य में लगभग एक वर्ष लग गया। लार्ड मार्ले ने इन संशोधित पत्र की छानबीन करके अपने सुझाव ब्रिटिश सरकार को भेजे। फरवरी, 1909 में इन सुझावों के आधार पर एक छोटा-सा बिल लार्ड सभा में पेश किया गया, जो पास होने के बाद अधिनियम बन गया। इसे भारतीय परिषद् अधिनियम 1909 या मार्ले-मिण्टो सुधार कहते हैं। इस अधिनियम को 1910 में लागू किया गया।

सुधारों के प्रति दृष्टिकोण-इस सुधार योजना के जन्मदाता भारत सचिव लार्ड मार्ले तथा भारत के गवर्नर जनरल लार्ड मिण्टो थे। उनका उद्देश्य इन सुधारों द्वारा केवल सहयोग की नीति का विस्तार था। इन सुधारों का उद्देश्य केवल परिषदों के आधार तथा कार्य क्षेत्र का विस्तार करना मात्र था। विधेयक निर्माता भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना के पक्ष में थे। लार्ड मार्ले ने औपनिवेशिक स्वशासन के विचार पर अपनी स्वीकृति नहीं दी और गोखले को स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि यह विचार चन्द्रमा को लेने के लिए रोने जैसा है। लार्ड मार्ले ने 8 दिसम्बर, 1908 ई. को लार्ड सभा में कहा था कि, यदि अनुमान किया जाये कि इन सुधारों द्वारा भारत में संसदीय राज्य स्थापित कर रहा हूँ या सुधार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संसदीय प्रणाली में परिणित होंगे, तो बिलकुल गलत होगा। इन सुधारों का उद्देश्य ससदीय प्रणाली की स्थापना कदापि नहीं है।


अधिनियम की प्रमुख धारायें
मार्ले-मिण्टो सुधार को भारत के संवैधानिक इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण सीमा चिन्ह माना चाता है। इन्हें भारत की प्रतिनिधि संस्थाओं के विकास की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी भी कहा जाता है। इसके द्वारा भारतीयों को न केवल विधि-निर्माण के कार्य में, अपितु देश के नित्य प्रति प्रशासन में भी सम्मिलित करने का प्रयत्न किया गया। इसके द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय कौंसिलों की सदस्य संख्या में एवं उनकी शक्तियों में भी वृद्धि की गई। इनमें कुछ निर्वाचित सदस्य लेने की व्यवस्था भी की गई। मार्ले-मिण्टो सुधार इसलिए भी महत्त्वपूर्ण थे कि इनमें सीमित मताधिकार और परोक्ष निर्वाचन के साथ-साथ मुसलमानों को पृथक् चुनाव प्रणाली और विशेष प्रतिनिधित्व देने का प्रयत्न भी किया गया, जिसके कारण भारत के राजनीतिक जीवन में एक नया युग आरम्भ हुआ। इस अधिनियम की मुख्य धाराएं निम्नलिखित थीं-

(1)       विधान परिषदों के आकार में वृद्धि-1909 के अधिनियम द्वारा प्रत्येक विधान परिषद् के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई। केन्द्रीय विधान परिषद् के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 16 से 60 कर दी गई। विभन्न प्रान्तीय विधान परिषदों की अधिकतम निर्धारित सदस्य संख्या इस प्रकार थीं-बम्बई 50, मद्रास 50, बंगाल 50, संयुक्त प्रान्त 50, बिहार 50, उड़ीसा 50, पंजाब 30, बर्मा 30 और असम 30 पदेन सदस्य। इसके अतिरिक्त थे 1912 में प्रान्तों की सीमाओं में कुछ तबदीली करने पर अन्य प्रान्तों की विधान परिषदों की संख्या में भी कुच परिवर्तन हुआ। इस अधिनियम द्वारा निश्चित की गई सदस्य संख्या में कुछ परिवर्तन नये विनियमों द्वारा भी किये गये। जैसे, मद्रास 46, बम्बई 46, संयुक्त प्रान्त 47, बंगाल 52 और पंजाब 24।

(2)       केन्द्रीय विधान परिषद् में सरकारी बहुमत-केन्द्रीय विधान परिषद् में चार प्रकार के सदस्य थे-पदेन सदस्य, नामजद सरकारी अधिकारी, नामजद गैर-सरकारी अधिकारी और निर्वाचित सदस्य। गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी परिषद् के सब सदस्य अपने पदों के कारण केन्द्रीय विधान परिषद् के सदस्य थे। उनको पदेन सदस्य कहा जाता था। भारत सरकार जिन सरकारी अधिकारियों को केन्द्रिय विधान परिषद् का सदस्य नामजत कर देती थी, उनको नामजद सरकारी अधिकारी कहा जाता था। सरकार ऐसे व्यक्तियों को भी नामजद कर देती थी, जो सरकारी अधिकारी नहीं होते थे, परन्तु उनका जनता में बहुत अधिक प्रभाव होता था, वे सब नामजद गैर-सरकारी सदस्य कहताले थे। जो व्यक्ति चुने जाते थे, उनको चुना हुआ सदस्य कहा जाता था। निर्वाचित सदस्य प्रायः चैम्बर ऑफ कॉमर्स, जिला बोर्ड, नगरपालिकाओं और बड़े-बड़े जमींदारों द्वारा चुने जाते थे।

केन्द्रीय विधान परिषद् में सरकारी सदस्यों का बहुमत रखा गया, ताकि कानून बनाने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो। अपने सुधार सन्देश में भारत सचिव ने लिखा था, आपकी परिषद् अपने विधि-निर्माण सम्बन्धी तथा कार्यकारी, दोनों ही स्वरूपों की दृष्टि से ऐसी बनी रहनी चाहिए कि उसके पास सम्राट सरकार और साम्राज्य की पार्लियामेंट के प्रति उन दायित्वों के जो अब हैं और भविष्य में सदा रहने चाहियें, लगातार और बिना अड़चने के पूरा करने की शक्ति बनी रहे। इसलिए केन्द्रीय विधान परिषद् के 69 सदस्यों में से 37 सरकारी और 32 गैर-सरकारी सदस्य होते थे। 37 सरकारी सदस्यों में से 28 गवर्नर जनरल मनोनीत करता था और शेष 9 पदेन सदस्य होते थे। पदेन सदस्य थे-गवर्नर नजरल, उसकी परिषद् के 6 साधारण सदस्य तथा दो असाधारण सदस्य प्रधान सभापति और जिस राज्य में परिषद् की बैठक हो रही हो, उसका अध्यक्ष। 32 गैर-सरकारी सदस्यों में से 5 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत और शेष 27 निर्वाचित सदस्य होते थे। निर्वाचित सदस्यों के बारे में सरकारी प्रवक्ताओं का विचार था कि भारत क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के लिए उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इसमें विभिन्न जातियों, उपजाति ोयं, धर्मों और सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं, जिनेके हित एक-दूसरे के विरोधी हैं। सरकार की राय थी कि, भारतीय विधान परिषदों की रचना में निर्वाचन के सिद्धान्त का उपयोग करने के लिए एकमात्र व्यावहारिक पद्धति यह है किप्रतिनिधित्व वर्गों और हितों के आधार पर दिया जाये।

इस प्रकार, निर्वाचित सदस्यों का वर्गों, हितों तथा श्रेणियों के आधार पर लिये जाने की व्यवस्था की गई। फलतः केन्द्रीय विधान परिषद् के 27 निर्वाचित सदस्य इस प्रकार लिये जाने थे-5 मुसलमानों द्वारा, 6 हिन्दू जमींदारों द्वारा, 1 मुस्लिम जमींदार द्वारा, 1 बंगाल के चैम्बर ऑफ कॉमर्स द्वारा, 1 बम्बई के चैम्बर ऑफ कॉम्स द्वारा और शेष 13 नौ प्रान्तों के विधान परिषदों के गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा। सदस्यों की अवधि तीन वर्ष थी।

(3)       प्रान्तीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी बहुमत-केन्द्रीय विधान परिषद् के सदस्यों की तरह प्रान्तीय विधान परिषदों में भी चार प्रकार के सदस्य थे-सरकारी, गैर-सरकारी, मनोनीत और निर्वाचित, परन्तु लार्ड मार्ले ने प्रान्तों कि विधान परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों का बहुतम रखना हानिकारक नहीं समझा। इसके कई कारण थे-पहला, प्रान्तीय विधान मण्डलों की विधि निर्माण सम्बन्धी शक्तियाँ अत्यधिक सीमित तथा मर्यादि थीं। अतः स्थानीय परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों के बहुमत से सरकार को किसी प्रकार का खतरा नहीं था। दूसरा, अगर कोई प्रान्तयी परिषद् सरकार की इच्छा के विरूद्ध कानून बना देती, तो गवर्नर अपने वीटो अधिकार का प्योग कर उसे रद्द कर सकता था। तीसरा, गैर-सरकारी सदस्य विभिन्न हितों और वर्गों के प्रतिनिधि होने के कारण सरकार के विरूद्ध एक संयुक्त मोर्चा नहीं बना सकते थे। चौथा, प्रान्तीय परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत था, चुने हुए गैर-सरकारी सदस्यों का नहीं। पुन्निया के शब्दों, में, एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य, जिसका भारत-मंत्री ने अपने संदेश में जिक्र तक नहीं किया था, यह था कि वे इन परिषदों में केवल गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत बना रहे थे, न कि गैर-सरकारी निर्वाचित सदस्यों का बहुमत...। सरकार की निःशंक होकर यह भरोसा कर सकती थी कि किसी विषय पर मतदान के समय नामित गैर-सरकारी सदस्य अचल भक्ति और पक्के समर्थन के साथ सरकार के पक्ष में ही वोट देंगे।

पुन्निया का कथनपूर्ण रूप से सत्य प्रतीत होता है। सरकार को नामजद गैर-सरकारी सदस्यों की वफादारी पर पूर्ण विश्वास था। तथा बंगला में सिवाय हर प्रान्त में सरकारी तथा नामजद गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत था। उदाहरणस्वरूप, मद्रास कि विधान परिषद् में 26 गैर-सरकारी और 21 सरकारी सदस्य में से 5 पदेन सदस्य होते थे। पदेन सदस्य थे-गवर्नर, उसकी कार्यकारिणी परिषद् के तीन सदस्य और महाधिवक्ता। शेष 16 सदस्य गवर्नर द्वारा मनोनीत किये जाते थे। 26 गैर-सरकारी सदस् ोयं में से 5 नामांकित तथा 21 निर्वाचित सदस्य थे। इस प्रकार विधान परिषद् में सरकार का स्पष्ट बहुमत था। 21 निर्वाचित सदस्यो में से 9 नगरपालिकाओं तथा जिला बोर्डों द्वार, 5 भूमिपतियों तथा जमींदारो द्वारा, 3 प्रान्तीय मुसलमानों द्वारा, 1 चैम्बर ऑफ कॉमर्स द्वारा, 1 मद्रास विश्वविद्यालय के द्वारा और शेष 2 अन्य हितों द्वारा चुने जाते थे।

(4)       सदस्यों की योग्यताएं-नामांकित गैर-सरकारी सदस्यों के लिए विनियमों द्वारा कोई विशेष योग्यताएं निर्धारित नहीं की गई थीं। नामांकन की व्यवस्ता उन वर्गों तथा हितों को प्रतिनिधित्व देने के लिए की गई थी, जिन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त न हुआ हो। निर्वाचित सदस्यों की योग्यताओं के सम्बन्ध में विस्तृत नियम बनाये गये थ। बंगाल, बम्बई तता मद्रास के केवल नगरपालिकाओं और जिला बोर्डों के सदस्य की विधान परिषद् के सदस्य हो सकते थे, लेकिन उत्तर प्रदेश की परिषद् का सदस्य बनाने के लिए इस प्रकार की कोई शर्त नहीं थी।

प्रान्तीय परिषदों की सदस्यता के लिए अभिलाषी उम्मीदारों के लिए जायदाद सम्बन्धी योग्याता निर्धारित की गई थी, परन्तु निम्न प्रका के व्यक्ति निर्वाचन में भाग नहीं ले सकते थे-(1) जो ब्रिटिश प्रजाजन न हो, (2) सरकारी अधिकारी, (3) स्त्रियाँ, (4) पागल, (5) 23 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति, (6) दिवालिया और (7) पदच्युत किये गये सरकारी कर्मचारी। सरकार किसी भी व्यक्ति को चुनाव लड़ने से रोक सकती थी। इस अधिकार का उपयोग राष्ट्रीय नेताओं के अयोग्य घोषित करने के लिए आसानी से किया जा सकता था। ऐसी परिस्थितियों में राष्ट्रीय नेताओं के लिए परिषदों का सदस्य बनना बहुत कठिन था। इसके अतिरिक्त विशेष वर्गों के निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ने वाले उम्मीद्वारों से विशिष्ट योग्यताओं की आशा की जाती थी।

(5)       सीमित था भेदभाव पर आधारित मताधिकार-1909 के अधिनियम द्वारा भारतीयों के परिषदों को चुनाव में भाग लेने का जो अधिकार दिया गया, वह अत्यन्त समीति था। वह अनेक प्रकार के भेदभावों पर आधारित था और प्रत्येक प्रान्त में भिन्न-भिन्न था। उदाहरणस्वरूप, केन्द्रीय विधान परिषद के चुनाव के लिए जमींदरा के चुनाव क्षेत्रों से वही जमींदार मत दे सकते थे, जिनकी बहुत अधिक आमदनी थी। मद्रास में वह अधिकार उनको दिया गया, जिनकी वार्षिक आय 15000 थी या जो 10000 रूपया वार्षिक भूमकिर के रूप में देते थे। प्रान्तीय परिषदों के सदस्य चुनने वाले मतदाताओं के लिए भी इसी प्रकार की, लेकिन इनसे कुछ कठोर योग्यताएं नियत की गई थीं। बंगाल में यह अधिकार उनको दिया गया, जिनके पास राजा या नवाब की उपाधि थी। मनध्य प्रान्त में यह अधिकार उनको दिया गया, जो ऑनेरेटी मजिस्ट्रेट थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि, इसके परिणामस्वरूप कई चुनाव क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या 22 से अधिक नहीं होती थी, जबकि बड़े से बड़े चुनाव क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या 650 थी।

केन्द्रीय तथा प्रान्तीय परिषदे विभिन्न चुनाव क्षेत्रों तथा विभिन्न प्रान्तीय परिषदों की मताधिकार की योग्यताएं एक-दूसरे से बहुत भिन्न थीं। मुसलमानों में भी मताधिकार की योगय्ताएं प्रत्येक प्रान्त में भिन्न-भिन्न थीं। इतना ही नहीं, मुसलमानों और गैर-मुसलमानों की मताधिकार हजार रूपये वार्षिक आमदनी पर आकर देता था, भूमि कर देता था, मत देने का अधिकार था, लेकिन इसके विपरीतन तीन लाख की आमदीन पर कर देने वाले किसी हिन्दू, पारसी या ईसाई को यह अधिकार नहीं था। इसी प्रकार, प्रत्येक ऐसे मुसलमान स्नातक को वोट देने का अधिकार था, जिसे बी.ए. पास किये 5 वर्ष हुए हो, लेकिन यहि अधिकार हिन्दू, पारसी या ईसाई को नहीं था, चाहे उसे बी.ए. पास किये हुए 20 वर्ष की क्यों न हुए हों। इसकी कड़ी आलोचना पण्डित मदनमोहन मालवीय ने 1909 ई. के इण्डियन नेशनल कांग्रेस के अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए की थी।

(6)       विधान परिषद के कार्यक्षेत्र का विस्तार-1909 के अधिनियम द्वारा विधान परिषदों के सदस्यों के कार्यों तता अधिकारों में वृद्धि की गई। इसके पूर्व सदस्यों को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था, परन्तु इस अधिनियम द्वारा मूल प्रश्न करने वाले सदस्य को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया। स्पष्ट है कि दूसरे सदस्यों को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं दिया गया। विधान परिषद् के सदस्यों को बजट पर बहस करने और प्रस्तव पेश करने का अधिकार भी दिया गया, किन्तु वे बजट पर मतदान नहीं कर सकेत थे। सैनिक तथा कुछ अन्य मदों पर सदस्यों को बहस करने का अधिकार भी नहीं था। सदस्यों को सार्वजनिक हित सम्बन्धी प्रस्तव प्रस्तुत करने तथा उस पर मत देने का अधिकार मिला। ऐसे प्रस्ताव पेश करने के लिए 15 दिन पहले सूचना देना आवश्यक था। वाद-विवाद के समय इसमें संशोधन किये जा सकते थे। प्रस्ताव प्रस्तुत करने के सम्बन्ध में कहा गया कि, वे स्पष्ट तथा निश्चित होने चाहिये, उसमें दलील, अनुमान तथा आपेक्ष की चर्चा नहीं होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त विधान परिषद् का अध्यक्ष कीसी भी प्रस्ताव को कोई भी निश्चित कारण बताये बिना अस्वीकार कर सकता था। इतना ही नहीं, वह सार्वजनिक हित का बहाना लेकर किसी भी प्रस्ताव को पेश करने की मनाही कर सकता था। इसके अतिरिक्त किसी प्रश्न विशेष का उत्तर देने के लिए कार्यकारिणी बाध्य नहीं थी।

(7)       प्रान्तीय कार्यकारिणी परिषदों के आकार में वृद्धि-सपरिषद् गवर्नर जनरल को यह अधिकार दिया गया कि वह भारत सचिव की स्वीकृति में बंगालम में कार्यकारिणी परिषद् का निर्माण कर सके, जिसमें अदिक से अधिक चार सदस्य हों। अन्य प्रान्तों में भी कार्यकारिणी परिषद् का निर्माण किया जा सकता था, लेकिन ब्रिटिश संसद ऐसा करने से रोक सकती थी। जी.एन.सिंह के शब्दों में, इस अधिनियम ने सरकार को अन्य कारकारिणी परिषदों की रचना करने की शक्ति इस शर्त पर प्रदान की कि पार्लियामेंट के दोनों सदनों में से कोई-सा भी इसका निषेध (वीटो)कर सकता है। इस अधिनियम द्वारा भारत सचिव को बम्बई तथा मद्रास की कार्यकारिणी परिषदों के सदस्यों की संख्या 2 से बढ़ाकर 4 क देने का अधिकार दिया गया। इनमें से कम से कम आधे सदस्य अर्थात् 2 सदस्य ऐसे होने चाहिए, जो कम स कम 12 वर्ष तक सम्राट की सेवा में भारत रह चुकें हो।

(8)       कार्यकारिणी परिषदों में भारतीयों की नियुक्ति- इस अधिनियम में कार्यकारिणी परिषदों में भारतीयों की सम्मिलित करने की इच्छा व्यक्त की गई थी। परिषदों तथा ब्रिटिश नौकरशाही के विरोध के बावजूद भी ब्रिटिश मंत्रिमंण्डल ने इस सम्बन्ध में अपनी स्वीकृति दे दी। 1907 में भारत सचिव मार्ले ने दो भारतीयों-श्री के.जी. गुप्ता और श्री सैयद हुसैन बिलग्रामी को इण्डिया कौंसिल का सदस्य नियुक्त किया था। अब गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में सर एस.पी. सिन्हा को कानून सदस्य नियुक्ति किया गया। ए.बी. कीथ के शब्दों में, 1907 ई. में भारत मंत्री ने स्वयं अपनी परिषद् में दो भारतीयों को रखकर जो कदम उठाया था, उसकी अपेक्षा यह कदम निर्विवाद रूप से कहीं अधिक महत्त्पूर्ण था।

(9)       साम्प्रदायिक और पृथक् निर्वाचन पद्धति-इस अधिनियमम द्वारा साम्प्रदायिक और पृथक् निर्वाचन प्रणाली को अपनाया गया। निर्वाचन प्रणाली अप्रत्यक्ष थी। मुसलमानों को सामान्य निर्वाचन में भाग लेने का अधिकार दिया गया तता साथ ही उन्हें पृथक् मत देने का अधिकार भी दिया गया। मुसलमानों को केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान परिषदों में उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक सदस्य भेजने का अधिकार दिया गया। इसके अतिरिक्त उनको अपने प्रतिनिधि सीधा चुनकर भेजने का अधिकार दिया गया था, परन्तु हिन्दुओं को इस प्रकार की कोई रियायत नहीं दी गई थी।

केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान परिषदों में मुसलमानों को अपने अलग प्रतिनिधित्व चुनने का अधिकार दिया गया। इतना ही नहीं, उनका पृथक् प्रतिनिधित्व देने के लिए विभिन्न व्यवस्थापिका सभाओं में स्थान सुरक्षित रखे गये। इसी प्रकार, जमींदारों, डिस्ट्रिक्ट बोर्डो, व्यापारियों एवं नगरपालिकाओं इत्यादि को भी पृथक् प्रतिनिधित्व दिया गया। इस प्रकार, साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व तथा पृथक्-पृथक् प्रतिनिधित्व को मार्ले-मिण्टो सुधार द्वारा औपचारिक मान्यता प्रदान की गई, जो भविष्य में भारत के लिए बहुत घातक सिद्ध हुई।

अधिनियम के दोष
अधिनियम के दोष
(1) भारतीयों को निराशा- भारतीय देश में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की माँग के लिए आन्दोलन कर रहे थे, परन्तु इन सुधारों ने लोगों को डॉ. जकारिया के अनुसार, सारी वस्तु न देकर केवल उसकी छाया ही प्रदान की। सच तो यह है कि लार्ड मार्ले का उद्देश्य भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना नहीं था। दिसम्बर, 1908 में उसने हाउस ऑफ लार्ड्स में भाषण देते हुए यह घोषणा की थी कि, इन सुधारों कि विषय में यह कहा जाये कि इनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारत में संसदीय सरकार की स्थापना होती है, तब मुझे ऐसे कार्य से कोई सम्बन्ध नहीं है।...यदि मेरा कार्यकाल या आयु बीस गुना भी बढ़ जाये, तो भी मैं भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना की एक क्षण के लिए भी कामना नहीं करूँगा। 13 मई, 1909 को लार्ड मार्ले ने एक बार फिर यह शब्द कह, हमारे जीवनकाल में और आगामी कोई पीढ़ियों तक भारतवर्ष के लिए स्वराज्य प्राप्त असम्भव है। इससे भारतीयों को बहुत निराशा हुई।

डॉ. जकारिया ने ठीक ही लिखा है कि, इन सुधारों द्वारा भारतीयों को जो चींजें दी गईं, वह बिल्कुल अर्थ-शून्य थीं। डॉ. मजूमदार ने इन सुधारों की आलोचना करते हुए लिखा है कि, ये केवल चन्द्र की चमक की भाँति थे। माइकल एडवर्ड ने लिखा है कि, मार्ले-मिण्टो सुधारों ने उत्तरवादी सरकारी की छाया मात्र उत्पन्न किया था, यद्यपि यह समझना कठिन है कि ब्रिटिश सरकार ने क्यों यह सोचा कि राष्ट्रीय नेता छाया मात्र से संतुष्ट हो जायेंगे। रॉबर्ट्स के अनुसार, ये सुधार भारतीयों के लिए अधूरे के समान थे। पायली के अनुसार, ये सुधार भारतीय जनता को संतुष्ट करने में असफल रहे।

इन सुधारों का उद्देश्य कुछ भारतीय प्रतिनिधियों को संविधान निर्माण और प्रशासन कार्य में सहयोग प्राप्त कर एक प्रकार का संवैधानिक एकतंत्र की स्थापना करना था। 1918 के संवैधानिक सुधारों के प्रतिवेदन में कहा गया था कि, उन्होंने मुगल सम्राटों और हिन्दू राजओं के लिए हुए एकतंत्र के सिद्धान्त का ब्रिटिश सम्राट और पार्लियामेंट से लिए हुए संविधानवाद के साथ मिश्रण करके एक संवैधानिक एकतंत्र का और एक प्रबल और निरंकुश शक्ति का निर्माण करने कि आशा की थी।...उन्होंने पहले ही समझ लिया था कि समाज का अभिजात वर्ग और नरम दली लोग, जिनके लिए उस समय भारतीय राजनीति में कोई स्थान नहीं था, सरकार के पक्ष में हो जायेंग और आगे शक्ति संतुलन को बदलने का और भारती संस्थानों का लोकतंत्रीकरण करने के किसी भी प्रयत्न का विरोध करेंगे। सर बारटलफ्रेरे ने अनुत्तरवादी सरकार तथा उनके दुष्परिणामों की ओर संकेत करते हुए लिखा है कि, सरकार दरबार के एक सम्राट की भाँति है किन्तु उसके परामर्धदाता चिन्तित है और उसके वैयक्तिक शासन से प्रसन्न नहीं है, जिसके फलस्वरूप शासन मन्द तथा भीरू हो गया है।...लोकप्रिय सरकार की विशिष्टता उत्तरदायी शासन है और उस विशिष्टता की वर्तमान सरकार में पूर्ण शून्यता है।

लायोनेल कोर्ट्ल ने इस अनुत्तरदायी शासन तथा उसके दुष्परिणामों की ओर इंगति करते हुए लिखा है कि, मिण्टो-मार्ले सिद्धान्त सबसे बड़ा दोष यह है कि जहाँ वह शासन का पूर्ण दायित्व एक वर्ग लोगों पर छोड़ देगा, वहीं वह शक्ति का हस्तांतरण दूसरे वर्ग के लोगों को कर देता है। इस प्रकार यह निर्वाचक दल को अधिक उत्तरदायी बनाने के स्थान पर कम उत्तरदायी बना देता है। यह ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देता है कि ऐसा लगता है कि इसका मन्तव्य कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका को संघर्ष की स्थिति में ला देना है और इस प्रकार ब्रिटिश सरकार तथा भारतीयों में वैर-भाव उत्पन्न हो जाता है।

इस प्रकार, इन सुधारों द्वार भारतीयों को अपने देश के शासन प्रबन्ध में भाग लेने का अधिकार प्राप्त नहीं हुआ और शासन कार्यों में अन्तिम निर्णय की शक्ति ब्रिटिश सरकार के हाथ में रही। डॉ. जकारिय ने ठिका ही लिखा है कि, सदस्यों की संख्या बहुत बढ़ा दी गई, किन्तु तत्काल की एक जोरदार चेतावनी प्रकाशित कर दी गई कि नई परिषदों का किसी भी प्रकार यह अभिप्राय नहीं था कि संसदीय प्रणाली को आरम्भ किया जाये। भारतीय परिषद् तथा वायसराय कार्यकारिणी परिषद् में केवल कुछ चुने हुए भातीयों को प्रवेश मिल सका, किन्तु भारतीयों को सरकारी क्षेत्र में प्रविष्ट करने का उदार दृष्टिकोण इस तथ्य को न छिपा सका कि वास्तविक शक्ति ब्रिटश हाथ में सुरक्षित रही।

(2) सम्प्रदायवाद को प्रोत्साहन-अंग्रेजों ने भारतीय राष्ट्रीयता के प्रवाह को अवरूद्ध करने के लिए के दो प्रमुख सम्प्रदायों हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने की नीति अपनाई। इस अधिनियम द्वारा जान-बूझकर भारत में फूट का बीज बाया गया, जिसके परिणामस्वरूप 1947 में भारत का विभाजन हुआ। पृथक् निर्वाचन प्रणाली द्वारा विभिन्न वर्गों, हितों तथा सम्प्रदायों में परस्पर फूट डालने का प्रयास किया, जिससे राष्ट्रीय एकता को गहरा धक्का पहुँचा। इसके अतिरिक्त भारतीयों में साम्प्रदायिक भावना भी दिन-प्रतिदिन प्रबल होने लगी। परिणामस्वरूप, कुछ ही वर्षों में सिक्ख, हरिजन, ऐंग्लो-इण्डियन आदि सम्प्रदाय भी अपने हितों की रक्षा के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व की माँग करने लगे। इस तरह से अंग्रेजों ने भारतीय राष्ट्रवाद की बढ़ती हुई धारा को रोकने के लिए एक सम्प्रदाय को दूसरे सम्प्रदाय के विरूद्ध खड़ा कर दिया, जिसके कारण राष्ट्रीय संगठन छिन्न-भिन्न होने लगा। इससे साम्प्रदायिकता में वृद्धि हुई। भारतीय संवैधानिक सुधार रिपोर्ट में इस अधिनियम के विषय में लिखा है कि, यह इतिहास के सिद्धान्तों के विरूद्ध था। इसने वर्गों एवं सम्प्रदायों में दूरी बढ़ाने का प्रयास किया। यह स्वायत शासन के सिद्धान्त के विकास में एक भारी रूकावट थी। पी.ई. रॉबर्टस् के शब्दों में, इस नई व्यवस्था से भारत के विभिन्न वर्गों तथा हितों में इतना भेदभाव उत्पन्न हो गया कि उनके लिए संयुक्त रूप से भारतवर्ष के हित में प्रयत्न करना सम्भव न रहा।

जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि, यह भारत के भविष्य पर प्रभाव डालने वाली वस्तु थी। भविष्य में मुसलमान केवल पृथक् निर्वाचन क्षेत्र से खेड़ हो सकते थे। इस प्रकार उनके चारों ओर एक राजनीतिक दीवार खड़ी कर दी गई तथा उन्हें शेष भारत से पृथक् कर दिया गया। यह दीवार प्रारम्भ में छोटी-सी थी, क्योंकि निर्वाचन क्षेत्र संकुचित थे, परन्तु जैसे-जैसे मताधिकर में वृद्धि होती गयी, यह दीवार बढ़ती गयी और उसका सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के ढाँचे पर इस प्रकार प्रभाव पड़ा कि मानो सारे ढाँचे में धुन लग गया हो। इससे हर प्रकार की पृथक्वादी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हुई तथा अन्त में भारत के विभाजन की माँग की गयी। पंडित मदनमोहन मालवीय ने लाहौर उधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए कहा था कि, यह एक ऐसा केस है, जिसमें प्रतीत होता है कि अल्पमत द्वारा बहुमत को एक कोने में धकेल दिया गया। इसमें सबसे बड़ी बुराई यह है कि इस लाभ को केवल मुसलमानों तक सीमित कर दिया गया है, जिनका कि अंग्रेजों द्वारा पक्षपात किया जा रहा है। इस प्रकार का कोई संरक्षण हिन्दू अल्पसंख्यक वर्गों को पंजाब, पूर्वी बंगाल तथा असम ने नहीं दिया गया है। इन दो प्रान्तों में हिन्दू अल्पसंख्यक वर्गो को बिना किसी संरक्षण के छोड़ दिया गया है।

गाँधीजी ने कहा कि, मार्ले-मिण्टो सुधारोंने हमारा सत्यानाश कर दिया। माइकल एडवर्ड्स ने 1909 के विधान द्वारा किये गये परिवर्तनों पर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है कि, सम्भवतः सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन यह था कि इन वर्गों में से मुसलमान बिरादरी को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मान लिया गया और साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व का खतरनाक सिद्धान्त इस विधान में लागू कर दिया गया। 1909 के विधान की आलोचना करते हुए के.एम. मुन्शी ने लिखा है कि, इस विधान द्वारा स्थापित व्यवस्थापिका परिषदें यद्यपि केवल परामर्शदात्री समितियाँ थी, परन्तु इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा गया कि एक वर्ग को दूसरे वर्ग के विरूद्ध खड़ा कर दिया जाये, एक जाति को दूसरी जाति के विरूद्ध भड़काया जाये, जिससे एक पक्ष दूसरे पक्ष के प्रभाव को रद्द कर सके। जमींदारों तथा व्यापारी वर्गों को राजनीतिक जाग्रति वाले वर्गों की अप्रेक्षा अल्यधिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया, जिससे इन लोगों को उचित प्रतिनिधित्व न मिल सके। इन लोगों के स्थान पर ऐसे लोगों को स्थान दिया गया, जो किसी भी प्रकार की आलोचना न कर सकें। पृथक् निर्वाचन पद्धति के सम्बन्ध में मार्ले ने लार्ड मिण्टो को लिखा था कि, पृथक् निर्वाचन प्रणाली स्थापित करके हम नाग के दाँत बो रहे हैं और इसका परिणाम भयंकर होगा।

1909 के सुधारों द्वारा भारत के बंटवारे का बीज बोया गया। मुसलमानों को अलग प्रतिनिधित्व प्रदान करके उन्हें सर्वदा के लिए भारत के अन्य नागरिकों से पृथक् कर दिया। अंग्रेजों ने साम्प्रदायिकता की भावना को हमेशा प्रोत्साहन दिया, जिसका अन्तिम परिणाम भारत विभाजन हुआ। आगा खां ने इस सम्बन्ध में ठीक ही लिखा है, लार्ड मिण्टो ने हमारी माँगों को स्वीकार करके ऐसी व्यवस्था का सूत्रपात किया, जो ब्रिटिश सरकार के भारत सम्बन्धी भावी संवैधानिक पगों पर आधार बनी रही और जिसके अनिवार्य परिणामों के रूप में भारत का बंटवारा तथा पाकिस्ता का जन्म हुआ।

भारत सचिव मार्ले वायसराय मिण्टो को लिखा था कि, याद रखना कि पृथक् निर्वाचन क्षेत्र बनाकर हम ऐसे घातक विष के बीच बो रहे है, जिसकी फसल बड़ी कड़वी होगी। महात्मा गाँधी ने कहा था कि, यदि यह अधिनियम पारित नहीं होता, तो हम स्वयं जातिगत माहिन्य का समाधान कर लेते।

(3) दोषपूर्ण निर्वाचन व्यवस्था-1909 के अधिनियम द्वारा अपनाई गई निर्वाचन व्यवस्था दोषपूर्ण थी। इसमें जनता को केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान परीषदों के लिए प्रतिनिधि भेजने का अधिकार नहीं था। इस प्रकार, भारतीयों को राजसत्ता से वंचित रखा गया, जिसके कारण वे राजनीतिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके। इस अधिनियम के अनुसार, सभी वयस्कों को मत देने का अधिकार नहीं था, बल्कि मत देने का अधिकार बहुत ही थोड़े लोगों को दिया गया था। मतदान सम्बन्धी योग्यातएं इतनी कठोर थी कि नई चुनाव क्षेत्रों में गिनती के कुछ व्यक्तियों को ही वोर देने का अधिकार था। इस प्रकार, मताधिकार का क्षेत्र बहुत सीमित था। केन्द्रीय व्यवस्थापिका के सबसे बड़े निर्वानच क्षेत्र में केवल 650 मतदाता थे तथा सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में औसतन केवल 22 मतदाता। प्रान्तीय विधान परिषदों के निर्वाचन क्षेत्रों में भी मतदाताओं की कुल संख्या 100 से अधिक नहीं थी। पुन्निया के शब्दों में, साधारण लोगों का प्रतिनिधित्व वस्तुतः एक के बाद एक कई चलनियों में से गुजरने की प्रक्रिया बन गया था।

इसके अतिरिक्त केन्द्रीय तथा प्रान्तिय विधान परिषदों की रचना के लिए निर्वाचन की पद्धति अप्रत्क्ष या कभी-कभी दोहरी अप्रत्यक्ष अपनाई गई थी। नगरों या गाँवों में उपकरदाता नगरपालिकाओं या स्थानीय बोर्डों के लिए अपने प्रतिनिधियों का निर्वाचन करते थे। फिर वे सदस्य प्रान्तीय परिषदों के सदस्यों का निर्वानच करते थे। इस तरह से केन्द्रीय विधान परिषद् में मत देने का अधिकार केवल प्रान्तीय विधान परिषद् के सदस्यों को ही था। साधारण जनता इस मतदान में भाग नहीं लेती थी। फलतः मतदातों तथा प्रतिनिधियों के बीच सम्पर्क नहीं हो पाया था और व्यवस्थापिका सभा के कार्यों पर मतदातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।

गेरेट तथा थाम्पस ने 1909 के सुधारों की आलोचना करते हुए लिखा है कि, इस अधिनियम द्वारा प्रबन्ध विभाग में कोई सैद्धान्तिक परिवर्तन नहीं किया गया। यद्यपि व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्यों के आलोचना सम्बन्धी अधिकार बढ़ा दिये गये। मार्ले महोदय यह नहीं चाहते थे कि भारत में प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली को लागू किया जाये। व्यक्तिगत दृढ़ विश्वासों तथा संसदीय सुविधा के कारण उनकी इच्छा यह थी कि व्यवस्थापिका सभाओं को परामर्शदात्री संस्थाओं के रूप में रखा जाये न कि स्वतन्त्र कानून बनाने वाली संस्थाओं के रूप में। प्रान्तीय समितियों के स्वतन्त्र इकाइयों के रूप में विकसित होने की कोई भी आशा शेष न रही, क्योंक मार्ले ने अत्यधिक विकेन्द्रीकरण की भावना को प्रोत्साहित किया तथा विकेन्द्रीकरण आयोग में उसमें बहुत कम संशोधन किया. संवैधानिक सुधारों की रिपोर्ट, 1918 में कहा गया था कि, जिसे प्राथमिक मतदाता माना जाता है, उसके और जो व्यक्ति विधान परिषद् में उसका प्रतिनिधि बनकर बैठता है, उसके मध्य कोई सम्बन्ध नहीं है और प्राथमिक मतदाता माने जाने वाले उस व्यक्ति के वोट पर विधान परिषद् की कार्यवाहियों पर कोई भी असर नहीं है। इन परिस्थितियों में उन लोगों का न कोई उत्तरदायित्व है तथा न कोई राजनीतिक शिक्षा ही, जो नाममात्र से मत का प्रयोग करते हैं। अभी ऐसे मतदाताओं का अस्तित्व, जिन पर उत्तरदायी सरकार के भार को वहन करनें की योग्यता हो, तैयार करना है।

इन कारणों से केन्द्रीय तथा प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाएं सच्ची प्रतनिध्यात्मक संस्थाओं का रूप नहीं ले सकीं। उत्तरदायी शासन की माँग करने वाले भारतीयों के लिए यह निराशाजनक था।

(4) प्रतिगामी अधिनियम-1909 के सुधारों द्वारा भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना नहीं की गई, अपितु इसके द्वारा उदारवादियों को संतुष्ट करने एवं उनका समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न किया गया था। यदि किसी वजह से उदारवादी भी अंग्रेजों का साथ नहीं दे सके, तो मुसलमानों को पृथक् प्रतिनिधित्व देकर उनका समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया गया था। इस अधिनियम से यह स्पष्ट हो गया था कि ब्रिटिश सरकार फूड डालो और राज करो की नीति पर चलते हुए भारत पर शासन करना चाहती है। जी.एन. सिंह के शब्दों में, इस अधिनियम के द्वारा ब्रिटिश सरकार ने अपनी ऐसी कोई चेष्टा नहीं की, जिससे पता चलता हो कि भारतवासियों को अपना शासन आप करने का सौभाग्य निर्णय का थोड़ा-सा भी अधिकार प्रदान करना चाहती है। केन्द्रीय सरकार का प्रान्तों पर नियंत्रण पूर्व की भाँति बना रहा तथा सार्वजनिक सेवाओं से भारतीयों को वंचित किया जाता रहा।

(5) विभिन्न सम्प्रदायों के मतदाताओं को असमान अधिकार-1909 के सुधारों द्वार सभी सम्प्रदायों के मतदाताओं को समान अधिकार प्राप्त नहीं किया गया था। हिन्दू मतदाताओं के लिए बहुत ऊँची योग्यता रखी गयी थी, जबकि मुसलमान मतदाताओं के लिए निम्नतम योग्यता। मध्यवर्गीय मुस्लिम जमींदारों, भूमि-स्वामियों, व्यापारियों तथा स्नातकों को मत देने का अधिकार दिया गया था, जबकि इन्हीं वर्गों के गैर-मुस्लिम लोगों को वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया गया था। पण्डित मदनमोहन मालवीय ने कहा था कि, 30 वर्ष पूराने हिन्दू, पारसी और ईसाई स्नातकों को, गुरूदास बनर्जी, डॉ. भंडाकरकर, सर सुबह्मण्य अय्यर और डॉक्टर रासबिहारी घोष जैसे व्यक्तियं को वह वोट का अधिकार नहीं दिया गया, जो पांच वर्ष पुराने हर मुसमलान स्नातक को दे दिया गया है।

इस प्रकार, अधिनियम ने बहुसंख्यक हिन्दू सम्प्रदाय के साथ घोर अन्याय किया। जिन विधान परिषदों में हिन्दुओं का बहुमत था, अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के नाम पर मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक सदस्य भेजने का अधिकार दिया गया था, परन्तु पंजाब, पूर्वी बंगाल तथा आसाम में हिन्दु अल्पसंख्याक थे और मुसलमानों का बहुमत था, लेकिन हिन्दुओं को मुसलमानों जैसा कोई संरक्षण नहीं दिया गया था। इसके अतिरिक्त मुसलमानों को तो अपने प्रतिनिधि सीछे चुनकर भेजने का अधिकार दिया गया था, परन्तु हिन्दुओं को इस प्रकार की कोई सुविधा नहीं दी गई थी।

(6) निविह स्वार्थों को प्रोत्साहन-इल ऐर्च ने जमींदारों, व्यापार-मण्डलों और भूमिपतियों आदि वर्गों को विशेष प्रतिनिधित्व प्रदान करके निविह स्वार्थों को बहुत प्रोत्साहन दिया। ये निविहत स्वार्थ वाले लोग ब्रिटिश सरकार के हाथों की कठपुतली थे, जिनका प्रयोग वह राष्ट्रहित के विरोध में करती थी।

(7) प्रशासन का अति-केन्द्रीकरण-इस अधिनियम में भारतीय प्रशासन का अत्यधिक केन्द्रीकरण कर दिया गया। प्रान्तों पर केन्द्र के नियंत्रण को शिथिल नहीं किया गया। राजस्व, प्रशासन तथा विधि निर्माण के क्षेत्र में सरकार का प्रान्तों पर नियंत्रण पूर्ववत् बना रहा। केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति भविष्य में स्थानीय संस्थाओं तथा स्वशासन की प्रगति के मार्ग में बहुत बड़ी साधा सिद्ध हुई।

(8) केन्द्रीय विधान परिषद् में सरकारी सदस्यों के ठोस गुट की विद्यमानता-केन्द्रीय विधान परिषद् में सरकारी सदस्यों की संख्या गैर-सरकारी सदस्यों की संक्या से अधिक थी। वे सरकारी गुट के रूप में कार्य करते थे। वे अपनी इच्छानुसार वोट नहीं दे सकते थे, सरकार की आज्ञा के बिना न तो प्रश्न पूछ सकते थे, न कोई प्रस्ताव पेश कर सकते थे। मतदान के समय उन्हें सरकार के पक्ष में और गैर-सरकारी सदस्यों के विपक्ष में मत देना पड़ात था। पुन्निया ने सरकारी सदस्यों के कार्यों के विषय में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि, गैर-सरकारी सदस्यों के भाषण चाहे कितने ही तर्कपूर्ण क्यों न हों और उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये सुझाव चाहे कितने ही क्यों न हो, मतदान के समय ये सरकारी सदस्य सदा ही सरकार के पक्ष में तथा गैर-सरकारी सदस्यों के विपक्ष में वोट देते थे। निर्वाचित सदस्यों की उपस्थिति मखौल बन गई थी। यहाँ तककि 1910 ई. में इन सुधारों के बारे में शिकायत करते हुए गोखले ने कहा था कि, जब सरकार किसी विशेष रूख को अपनाने के लिए एक बार इरादा करत लेती है, तो फिर गैर-सरकारी सदस्य चाहे जितना कहें, परन्तु उससे सरकार के रूख में कोई तबदीली नहीं आती है। इसके अतिरिक्त निराशाजनक बात यह थी कि सरकारी संघों का गुट भारत सरकार और गैर-सरकारी सदस्यों के बीच एक दीवार की भाँति था और दोनों पक्षों के बीच आपसी सम्बन्ध खराब करने में इसका महत्त्वपूर्ण योग था।

(9) प्रान्तीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत एक मजाक-प्रान्तीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत था, लेकिन इसकी कोई व्यावहारिक उपयोगिता नहीं थी। वस्तुतः गैर सरकारी सदस्यो दो प्रकार के होते थे-निर्वाचित गैर-सरकारी सदस्य और नामांकित गैर-सरकारी सदस्य। गैर-सरकारी सदस्य सदा ही सरकार के इशारों पर नाचते थे और बराबर उसी का समर्थन करते थे। इस प्रकार, निर्वाचित गैर-सरकारी सदस्यों का अल्पमत रह जाता था। एस.आल. शर्माने लिखा है कि, यूरोपियन चुने हुए सदस्य सरकार के लिए इतने ही अच्छे थे, जितने कि सरकारी अधिकारी। जमींदारों और मुसलमानों को ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा के कारण मताधिकार दिया गया था, इसलिए वे अधिक राजभक्ति दिखाकर अपने भविष्य को और अधिक उज्जवल बनाना चाहते थे। इसके अतिरिक्त गैर-सरकारी सदस्य परिषदों की बैठकों में इतने नियमित रूप से उपस्थित नहीं होते थे, जितने के सरकारी सदस्य। इससे परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों का पलड़ा और भी हल्का तो जाता था। सर एस.पी. सिन्हा ने कहा था कि, मार्ले-मिण्टो सुधार यद्यपि 1892 के पहले अधिनियम की अपेक्षा काफी आगे बढ़े हुए थे, परन्तु उन्होंने भारतीयों को प्रभाव डालने का अधिकार तो दिया, परन्तु कोई वास्तविक शक्ति प्रदान नहीं की। शक्ति प्रभाव से भिन्न है और हमें नीति को नियंत्रित करने तथा लगातार बढ़ाने के लिए शक्ति में निरन्तर वृद्धि की आवश्यकता है। श्री. के.वी. रंगास्वामी आयंगर ने कहा था कि, विधान परिषदें, जैसे कि वर्तमान दशा में है, कोई उपयोगी उद्देश्य सिद्ध नहीं करती हैं। इनसे केवल बाहरी सभ्य संसार को यह माया (भान्ति या इंद्रजाल) दिखाती है कि भारत पर प्रतिनिध्यात्मक विधान सभाओं के द्वारा शासन चलाया जा रहा है।

(10) विधान परिषदों के सदस्यों की सीमित शक्तियाँ-विधान परिषदों के सदस्यों की शक्तियाँ बहुत अधिक सीमित थीं। वे कार्यकारिणी से प्रश्न पूछ सकते थे, परन्तु कार्यकारिणी के सदस्य उन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं थे। पालन्दे के शब्दों में, सदस्यों को सार्वजनिक मामलों पर प्रस्ताव पास करने का अधिकार था, परन्तु उनके प्रस्ताव केवल सिफारिशें ही होती थीं। यह सरकार की इच्छा पर निर्भर था कि उनको माने या न माने। विधान-परिषदों के सदस्य बजट पर बहस कर सकते थे, परन्तु केन्द्रीय या प्रान्तीय सरकार के एक रूपये पर उनका सीधा कण्ट्रोल नहीं था। मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य सरकारी सदस्यों के साथ ही रहते थे। इसलिए सरकार को कानून पारित करवाने मं किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती थी। पुन्निया ने लिखा है कि, चाहै गैर-सरकारी सदस्य कितने भी अच्छे तर्क अपनी बात की पुष्टि में दे, परन्तु किसी समय बिल पर मतदाता होता था, तो सरकारी ब्लॉक सामेने आता ता और बिल अपने पक्ष में पास करवा लेता था। इसके अतिरिक्त गवर्नर तथा गवर्नर को इन सब मामलों पर वीटो का अधिकार भी प्राप्त था। एस.आर. शर्माने ठीक ही लिखा है, विधान परिषदों के वाद-विवादो में बिल्कुल रस नहीं था। परिषदों की कार्यवाहियों में वास्तविकता नहीं थी। सरकार हिन्दुस्तानी सदस्यों को बिल्कुल अन्त में बोलने की आज्ञा देती थी और उनके विचारों की तनिक भी परवाह नहीं करती थी, इसलिए भारतीयों को बहुत दुःख होता था। श्री गोखले ने सुधारों की शिकायत करते हुए मत व्यक्त किया कि, जब सरकार किसी विधेयक को पारित कराने के लिए विशेष रूख अपनाने का एक बार इरादा कर लेती है, तो फिर गैर-सरकारी सदस्य चाहे जितना कहे, उससे सरकार के रूख में कोई परिवर्तन नहीं होता है।

(11) अनेक नियमों और विनियमों द्वारा सदस्यों के अधिकार में कमी-इस अधिनियम में ऐसे नियम और विनियम बनाने गये, जिनके कारण सदस्यों के अधिकार और समीति हो गये। इन विनियमों द्वारा अनेक उग्रवादी राष्ट्रीय नेताओं को चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया। इसलिए इन सुधारों से विधान परिषदें रबर की मुहर बन गई, जो सरकारी को केवल औपचारिकता प्रदान करती थीं। इस अधिनियम पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, अमृत बाजार पत्रिक ने 17 नवम्बर, 1909 को लिखा था कि, शून्य के साथ यदि कोई शून्य जोड भी दिया जाये, तब भी वह शून्य, शून्य ही रहता है। कूपलैण्ड ने इस सम्बन्ध में लिखा था, ये विधान परिषदें संसद न होकर केवल दरबार थीं। उनके हाथ में मनमानी करने वाली सरकार को बदलने की शक्ति नहीं थी। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि, विधान सभाएँ जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले विधायकों के स्थान पर अजायबघर के रूप में बदल गयी थीं। विश्व नारायण ने लिखा है कि, ये सुधार कई प्रकार के अपूर्ण तथा दोषपूर्ण हैं, किन्तु महारी शिकायत उन नियमों तथा व्यवस्था के विरूद्ध है, जो अत्यन्त दोषपूर्ण है। उनसे सुधार योजना वास्तव में नष्ट हो गई है। बार्टल फ्रेरे ने इस अधिनियम के परिणामों पर प्रकाश डालते हुए लिखा था कि, भारतीय सरकार अब भी पूर्णरूप से एक निरंकुश राजसी दरबार के समान बनी रही, जो राजा की भाँति अपने दरबारियों के परामर्श लेती थी, परन्तु उनके मत पर अनुसरण करने को विवश नहीं थी। इसके परिणामस्वरूप दरबारी असन्तुष्ट और बेचैन होने लगे और शासन संकोचपूर्ण तता ढीला हो गया।

प्रो. कूपलैण्ड ने लिखा है कि, द्वैध शासन अपने निर्माताओं के उद्देश्य की पूर्ति करने में असफल रहा। इसने उत्तरदायी शासन की वास्तविक शिक्षा प्रदान नहीं की। श्री. बी.एन. धर ने लिखा है कि, ये सुधार कई प्रकार से अपूर्ण तथा दोषपूर्ण थे, किन्तु हमारी शिकायत उन नियमों तथा दोषपूर्ण व्यवस्था के विरूद्ध है तथा अधिनियम के उद्देश्य को कार्यान्वित करने के लिए जो नियम तथा व्यवस्था अपनाई गई है, उनसे सुधार योजना वास्तव में नष्ट हो गई है। निष्कर्थः यह सुधार योजना, अपर्याप्त एवं अर्द्धमार्गीय थे। रेम्जे मेकडॉनल्ड के अनुसार, मिण्टो-पार्ले सुधार जनतंत्रवाद और नौकरशाही के बीच एक अधूरा तथा अल्पकालीन समझौता था। कीथ के अनुसार, 1909 के सुधार भारतीय समस्या का कोई निदान नहीं थे और न ही वे कोई निदान प्रस्तुत कर सकते थे।

लायोनल कर्टिस ने इस प्रकार उत्पन्न असहाय स्थिति का इन शब्दों में वर्णन किया है, मार्ले-मिण्टो का महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि यह सरकार का समस्त उत्तरदायित्व एक प्रकार से कुछ व्यक्तियों पर छोड़ देता है तता उसी समय शक्ति का हस्तांतरण कुछ और व्यक्तियों पर डाल देता है। इसके द्वारा यह निर्वानच दल को उत्तरदायी सरकार के लिए अधिक उपयुक्त बनाने के स्थान पर कम उपयुक्त बनाता है। यह ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देता है कि प्रबन्ध विभाग तथा व्यवस्थापिका विभाग को परस्पर भड़का देता है तथा इस प्रकार ब्रिटिश सरकार व बहुसंख्यक भारतीय जाति को परसम्पर वैर-भाव की स्थिति में डाल देता है। निर्वाचित सदस्य, जिन्हें स्वयं सरकार को चलाने के लिए कोई विशेष अवसर नहीं था, सरकार को भयभीत करके लाभ उठा सकता था तथा उसे ऐसी कार्यवाहियों को स्वीकार करने से रोक सकता था, जिन्हें वह महत्त्वपूर्ण समझती थी। व्यवहार में यह होता है कि सरकार हारती नहीं, अपितु जिन कार्यों के स्वीकृत होतने की उसे आशा नहीं होती, उसे प्रस्तुत करने में वह कुछ झिझक जाती है। राज्य की नर्सें धीरे-धीरे किन्तु अवश्य डगमगा जाती है, रूधिर बहाकर शान्ति को स्थापित करना पड़ता है तथा वैधानिक सरकार के विकास को निश्चित रूप से स्थगित किया जाता है। कोई भी सरकार इस प्रकार के लकवे की स्थित से अपनी प्रतिष्ठा स्थिर नहीं रख सकती है।

श्री के.एम. मुंशी के कथानुसार, मार्ल-मिण्टो सुधार के रूप में राजनीतिक परिवर्तन नरमल दल वालों को शान्त करने के लिए प्रदान किये गये। व्यवस्थापिका परिषदों के द्वारा, जिनकी स्थापना इसके अधीन हुई थी, संसदीय सरकार का निर्माण कार्य अभीष्ट नहीं था, जैसे कि वायसराय मिण्टोने स्वयं पुष्टि की थी। यद्यपि वे केवल परामर्शदात्री समितियाँ थीं, इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि किसी वर्ग को दूसरे के विरूद्ध खड़ा कर दिया जाय, एक जाति को दूसरी जाति के विरूद्ध भड़काया जाये, जिससे प्रत्येक दूसरे पक्ष के प्रभाव को रद्द कर सके। जमींदारों तथा व्यापारी वर्गों को राजैनतिक जाग्रति वाले वर्गों की अपेक्षा अत्यधिक प्रतिनिधित्व दिया गया, जिससे इन लोगों को उचित प्रतिनिधित्व न मिल सके। ऐसे लोगों के स्थान पर उन लोगों को स्थान दिया गया, जो किसी भी प्रकार की आलोचना न करे सकें, भले ही उनके लिए विशेष हितों की व्यवस्था की जाये तथा चाहे वे वर्ग उसके लिए संगठित न भी हों। तत्कालीन भारत मंत्री मार्ले, स्वयं ब्रिटेन में रैडीकल था, जहाँ तक भारत का सम्बन्ध है, वह एक टोरी दल वाले से भी बुहा सिद्ध हुआ।

गैरेट तथा थाम्पसन के कथनानुसार, इस अधिनियम के प्रबन्ध विभाग में कोई सैद्धान्तिक परिवर्तन नहीं किया गया, यद्यपि व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्यों का आलोचना सम्बन्धी अधिकार बढ़ा दिया गया। व्यवस्थापिका सभाओं में जो परिवर्तन किये गये थे, वे सावधानतापूर्ण तथा प्रयोग सम्बन्धी थे। 28 नवम्बर, 1908 की सम्राट की घोषणा में सुधारों का पहले सी ही संक्त कर दिया गया था। उनमें प्रतिनिधि संस्थाओं के सिद्धान्त को दूरदर्शितापूर्ण व्यापकर कर दिया गया था, किन्तु मार्ले नहीं चाहता था कि भारत में किसी प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली को लागू किया जाये। व्यक्तिगत दढ़ विश्वासों तथा संसदीय सुविधा के कारण उसकी इच्छा यह थी कि व्यवस्थापिक सभाओं को परामर्शदात्री संस्थाओं के रूप में रखा जाये, न कि स्वतन्त्र कानून बाने वाली संस्थाओं के रूप में। प्रान्तीय समितियों के स्वतन्त्र इकाइयों के रूप में विकसित होने की कोई भी आशा शेष नम रही, क्योंकि मार्ले ने अत्यधिक विकेन्द्रीकरण की भावना को प्रोत्साहित किया तथा विकेन्द्रीकरण आयोग ने उसमें बहुत कम संशोधन किया।

डॉ. ए.बी. कीथ के कथानुसार, 1909 के सुधार अपने उद्देश्य में असफल हुए, यदि वह उद्देश्य स्वराज्य के आन्दोलन को रोकना था, तथा उनसे गरम दल वालों की माँगें स्पष्ट रूप से संतुष्ट नहीं की जा सकती थीं। इसका अवश्यम्भावी परिणाम यह हुआ कि केन्द्रीय सरकार का नियन्त्रण नीति पर पुनः लागू कर दिया गया तथा स्थानीय सरकारों को पुनः स्मरण सरवा दि गया कि उनके अफसर व्यवस्थापिका सभाओं में भारतीय सरकार के निश्चयों के सम्बन्ध में आलोचनात्मक रवैय्या न अपनायें।

डॉ. जकारिय ने संक्षेप में बड़े सुन्दर ढंग से इसका विश्लेषण करते हुए कहा कि, इसमें एक ओर प्रगतिशील कदमों का समावेश किया गया था तथा दूसरी ओर उन पर इतने बन्धन लगा दिये गये थे कि वे निरर्थक हो गये थे। प्रजातांत्रिक निर्वाचन सिद्धान्त अप्रजातांत्रिक साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व से जुड़ा हुआ था, सरकारी बहुमत को समाप्त कर दिया गया था, फिर भी, निर्वाचित सदस्य अल्पमत में थे। परिषदों की सदस्य संख्या तथा अधिकार क्षेत्र में वृद्धि की गई थी, फिर भी, संसदीय सरकार की स्थापना नहीं की गई। कार्यकारिणी परिषदों में भारतीयों को स्थान दिया, फिर भी सत्ता अंग्रेजों के हाथ में रही।

अधिनियम का महत्त्व

विभिन्न त्रुटियों से युक्त होने पर भी मार्ले-मिण्टो सुधारों को एकदम निरर्थक नहीं कहा जा सकता। पायली के अनुसार, सार रूप में मार्ले-मिण्टो सुधार 1892 के अधिनियम की कमियों को दूर करने वाले थे।

1909 का अधिनियम 1892 के अधिनियम की अपेक्षा निःसंदेह एक प्रगतिशील कदम था। गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी और भारत सचिव की कौंसिल में भारतीयों को स्थान दिया गया। विधान परिषदों का विस्तार किया गया और इसके सदस्यों के अधिकारों में भी वृद्धि की गई। इस अधिनियम द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया था। विधान परिषद् के सदस् औेयं को सार्वजनिक हित के मामलों पर प्रस्तावों को प्रसत्तु करने का अधिकार दिया गया। भारतीयों को सरकार की आलोचना करने तथा सुझाव देने का अधिकार प्राप्त हुआ, किन्तु सरकार भारतीयों की बात को मानने के लिए विविश नही थी। इस प्रकार भारतीयों का सरकार पर कोई नियंत्रण नहीं था। इस बात को स्वयं मार्ले ने भी स्वीकार किया था। इस तरह से भारत में वैधानिक एकतन्त्र की स्थापना हुई। रैम्जे मेक्डोनल्ड ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, मार्ले-मिण्टो सुधार जनतन्त्रवाद और नौकरशाही के बीच अधूरा और अल्पकालीन समझौता था।

1909 के सुधार भारत की प्रतिनिधि संस्थाओं के विकास में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी थे। यद्यपि लार्ड मार्ले ने यह घोषणा की थी कि, मेरे इन सुधारों का उद्देश्य भारत में संसदीय सरकार की स्थापना नहीं है, तथापि ये सुधार उस दिशा में जाने वाले मार्ग पर, जिस पर शीघ्र ही वह पड़ाव आ जाना था, निश्चित रूप से आगे की ओर कदम थे। परिषदों में आदर्श संसदीय संस्थाओं का सारा उत्तदायित्व भले ही न हो, किन्तु बाहरी आडम्बर अवश्य था। एस.आर. शर्मा ने लिखा है कि, इस अधिनियम ने जो संवैधानिक एकतंत्र स्थापित किया, उसके एकतन्त्रीय पक्ष को अवश्य ही इसके संविधानवादी पक्ष से चुनौती मिलती थी और उस चुनौती का कोई न कोई उत्तर अवश्य ढूँढ जाना था। इस बात की सम्भावना भी कि एकतन्त्र की उठा-पटक दिया जायेगा।

इन सुधारों के कारण परिषदों में भारतीय जनता की शिकायतें प्रस्तुत करते थे, जिसके कारण सरकार के दफ्तरशाही स्वरूप में कुछ सीमा तक सुधार किया गया। इन सुधारों के परिणामस्वरूप भारतीय सदस्यों को अपने विचारों को प्रकट करने का अवसर प्राप्त हुआ।

इन सुधारों के द्वारा भारतीयों को राजनीतिक परिषदों में सम्मिलित किया गया। वहाँ उन्होंने अपनी राजनीतिक योग्यता एवं उच्च कोटि की मानसिक क्षमता का सराहनीय प्रमाण दिया। यद्यपि भारत सरकार ने गैर-सरकारी सदस् औेयं के सुझावों को खुल्लम-खुल्ला स्वीकार नहीं किया, तथापि वह उनके बहुमूल्य वाद-विवादों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। प्रो. एस.आर. शर्मा के शब्दों में, इन प्रतिभाशाली गैर-सरकारी सदस् औेयं ने यह प्रमाणित कर दिया किय, यदि उन्हें उचित अवसर प्रदान किया जाये, तो वे कौंसिलों में बहुत उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं।

गवर्नर जनरल की परिषद् में भारतीयों को सम्मिलित किया जाना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। इससे उन्हें प्रशासनिक कार्यों में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ और सरकार की गुप्त परिषदों में भी झाँकने का मौका मिला। इसके अतिरिक्त सदस्यों ने राष्ट्रीय विचारों का प्रचार के लिए इन परिषदों का सार्वजनिक रंगमंच के रूप में प्रयोग किया।

इस अधिनियम ने भारतीय संविधान को उस स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया, जहाँ से पीछे जाना सम्भव नहीं था। इसलिए 1917 ई. में मॉण्टेन्यू को यह घोषणा करनी पड़ी कि ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य भारत में धीरे-धीरे उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना है। अतः यह अधिनियम संवैधानिक विकास के वृहत् दृष्टिकोण से भारतीय स्वशासन की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम था। लार्ड मार्ले ने इन सुधारों के बारे में ठीक ही कहा था कि, ये ग्रेट ब्रिटेन और भारत के मध्य सम्बन्धों के इतिहास में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अध्याय आ आरम्भ थे और भारत के प्रति ब्रिटिश उत्तरदायित्व के इतिहास में एक नया पन्ना पलटने के समान थे।

यद्यपि यह सत्य है कि 1909 का अधिनियम निःसंदेह 1892 के अधिनियम से अधिक प्रगतिशील था, लेकिन ये परिवर्तन केवल मात्र में थे, प्रकार में नहीं, यह सुधार अधिनियम पूर्व में अपनाई गई सहयोग की नीति का केवल विस्तार मात्र था। प्रो. स्पीयर ने इन सुधारों के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा था कि, यह सत्य है कि इन सुधारों द्वारा भारतीयों को शासन अधिकार सम्नब्धी विशेष रियायतें न मिल सकीं, लेकिन इनका भारतीय जनमत पर काफी प्रभाव पड़ा। यदि 1909 ई. में ये सुधारन न किया जाते, तो राष्ट्रीय आन्दोलन का नियंत्रण अवश्य ही उदारवादियों के हाथ से निकलकर उग्रवादियों के हाथ में चला जाता और ऐसी अवस्था में प्रजातांत्रिक स्वतन्त्रता का भारतवर्ष में नियमित ढंग से विकास न हो पाता। जी.एन.सिंह ने लिखा है कि, इस अधिनियम के कारण सार्वजनिक महत्त्व विशेषकर वित्तीय विषयों पर विचार-विमर्श विषयक अधिकारों की दिशा में विशेष प्रगति हुई थी।

इस अधिनियम के द्वारा भारतीयों को उत्तरदायी शासन का प्रशिक्षण भी प्रदान किया गया। श्री प्रधान के अनुसार, अधिनियम के द्वारा भारतीयों को वह मूल्यवान प्रशिक्षण प्रदान किया गया, जिसके बिना वे 1919 के अधिनियम के आधार पर स्थापित व्यवस्थापिकाओं का पूर्ण उपयोग करने में असमर्थ रहते। व्यापक दृष्टिकोण से ये सुधार स्वशासन की ओर बढ़ने के आवश्यक तथा उपयोगी चरण थे। एस.आर. शर्मा ने इन सुधारों के सम्बन्ध में लिखा है कि, यद्यपि विधान परिषद् के सदस्य सरकार से अपनी बात नहीं मनवा सकते थे, परन्तु उन्होंने राष्ट्रीय विचारों का प्रचार करने के लिए इन विधान परिषदों का सार्वजनिक रंगमंच के रूप में अच्छा प्रयोग किया। वे इनके द्वारा जनता को सरकार के विरूद्ध जगाने में सफल रहे।

सुधारों की असफलता के कारण- मार्ले-मिण्टो सुधारों को नवम्बर, 1910 में लागू किया गया, परन्तु भारतीय जनता इनसे सन्तुष्ट नहीं थी, क्योंकि इनके द्वारा भारतीयों को कोई वास्तविक शक्ति नहीं दी गई थी। इनकी इस विफलता का मुख्य कारण तो इनकी मौलिक त्रटियाँ थीं, परन्तु निम्नलिखित परिस्थितियों ने भी इन सुधारों को असफल बनानें में महत्त्वपूर्ण योग दिया-
(1)       केन्द्र में सरकारी अधिकारियों का बहुमत था, जिसके कारण सरकार अपनी कोई भी बात आसानी से मनवा सकती थी। प्रान्तों में भी सरकार नामजद दिये हुए गैर-सरकारी अधिकारियों की सहायता से सब कानून आसानी से पान करवा सकती थी। इसके अतिरिक्त प्रान्तीय परिषदों पर केन्द्रीय सरकार का कठोर नियंत्रण था, जिसके परिणामस्वरूप वे अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकी थीं।
(2)       चुनाव प्रणाली भी ऐसी रखी गई थी कि वे चुने हुए सदस्य अपने-अपने सम्प्रदायों के हितों की रक्षा करने के लिए सरकार के अधिक से अधिक वफादार बनने का प्रयत्न करते थे।
(3)       यदि विधान परिषद् गवर्नर जनरल और गवर्नर की किसी भी बात को न माने, तो वे अपने विशेषाधिकार वीटो का प्रयोग कर सब कुछ कर सकते थे।
(4)       भारतीयों को थोड़े बहुत अधिकार दिय गये थे, उन्हें भी अनेक नियमों एवं विनियमों द्वारा नष्ट कर दिये गये।
(5)       समस्त उच्च पदों पर केवल अंग्रेज नियुक्त किये जाते थे।
(6)       स्थानीय संस्थाओं जैसे जिला बोर्डों तथा नगरपालिकाओं की भी विशेष उन्नति नहीं हुई, क्योंकि उन पर सरकारी नियंत्रण बहुत अधिक था।
(7)       भारतीयों के प्रति सरकार तथा नौकरशाही का व्यवहार बहुत घृणापूर्ण था। जब भारत सचिव हमारे देश में आए, तो उन्हें यह जानकर आर्श्चय हुआ कि ऊँचे दुर्जे के भारतीयों को भी अंग्रेजी कल्बों में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं थी।
(8)       भारत में राष्ट्रीय चेतना की लहर द्वुत गति से फैल रही थी, जिसके कारण भारतीयों ने इन सुधारों को बिल्कुल अंसतोषनजनक बताया और स्वराज्य की माँग बुहत जोरों से शुरू की। इस कारण भी मार्ले-मिण्टो असफल सिद्ध हुआ।

कीथ ने 1909 ई. के सुधारों की आलोचना करते हुए लिखा है कि, 1909 ई. के सुधार अपने उद्देश्य में असफल हुए, यदि वह उद्देश्य राज् के आन्दोलन को रोकना था। कीथ आगे लिखते हैं कि, उनसे गरम दल की माँगें स्पष्ट रूप से पूरी नहीं की जा सकती थीं। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि नीति पर केन्द्रीय सरकार का नियंत्रण पुनः लागू कर दिया गया तथा स्थानीय सरकारों को पुनः स्मरण करवा दिया गया कि इनके अधिकारी व्यवस्थापिका सभाओं में भारतीय सरकार के निश्चयों के सम्बन्ध में आलोचनात्मक रवैया न अपनायें।

 

क्रांति १८५७

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